प्यारचन्द शर्मा 'साथी'
सुबह को आमंत्रित करती औरत
औरतें होती ही है प्रकृति से सहनशील या तो पी जाती है या आंखों से बहा देती है दुखों का सैलाब । हर दिन प्रयत्न करती है घर …
औरतें होती ही है प्रकृति से सहनशील या तो पी जाती है या आंखों से बहा देती है दुखों का सैलाब । हर दिन प्रयत्न करती है घर …
घर ही तो है जो रिश्ते बनाता है कुछ टूटते बिखरते कुछ कठलताओं से चढ़ते आकाश भरने को आतुर कुछ ही बंधे रहते हैं अंत…
सन्नाटे के गलियारे में आज फिर छन्नाक से टूटा मन । चुप चुप मुझे निहारा करे घर का कोना । जैसे पूछ रहा हो मानो घर में हो…
वन में पाखी ढूंढ रहा है टहनी कोई, करे बसेरा । कोई सुरक्षित ठौर दिखे तो अपने पर समेटे । लिख दे पल दो चार खुशी के इस जीवन…