घर ही तो है
जो रिश्ते बनाता है
कुछ टूटते बिखरते
कुछ कठलताओं से चढ़ते
आकाश भरने को आतुर
कुछ ही बंधे रहते हैं अंत तक ।
घर में भरी रहती है रिश्तों की गंध
संचरित होती पूरी देह ।
गंध ही से पहचाने जाते रिश्ते ।
खंडहर हो जायेंगे एक दिन
जरूरी है उखड़ने से पूर्व
संवार दिया जाए
हर एक पत्थर ।
घर में रहते हैं रिश्ते, घर के होकर,
दरारों में भरी जाती है
प्रेम और सौहार्द की मल्हम ।
रिश्ते छत बनाते हैं
कुछ रिश्ते होते हैं मजबूत खंभों सदृश
इन्ही खंभों पर टिकता है घर।
प्यारचन्द शर्मा 'साथी'
3 ई 55, न्यू हाउसिंग बोर्ड
शास्त्री नगर भीलवाड़ा

