औरतें होती ही है
प्रकृति से सहनशील
या तो पी जाती है
या आंखों से बहा देती है
दुखों का सैलाब ।
हर दिन प्रयत्न करती है
घर की थाली में
कैसे परोसा जाए सुख ।
मोम से निर्मित
औरत का अंतःकरण
जरा-जरा सी आंच पर
पिघलने लगता है ।
सपने पिरोती औरत
भविष्य की इमारत की
नींव में बड़े सलीके से
ईंट पर रखती है ईंट ।
आरती के दीपक से
उजालों को संदेश भेजती औरत
अपने पल्लू में आशाओं की
गांठ पर लगाती गांठ ।
हर दिन
सर्व प्रथम घर में
सुबह को आमंत्रित
औरत ही करती है ।
झाड़ू बुहारू कर
द्वार पर
सूर्य को अर्घ्य दे
तुलसी के बिरवा को नमन कर ।
औरत जब फुर्सत में होती
गीत गाती
दीवारें सुनती आंगन थिरकता ।
पूरा घर नृत्य करता है ।
प्यारचन्द शर्मा 'साथी',
3 ई 55, न्यू हाउसिंग बोर्ड
शास्त्री नगर भीलवाड़ा
3 ई 55, न्यू हाउसिंग बोर्ड
शास्त्री नगर भीलवाड़ा

