एक तयशुदा संघर्ष
अक्सर हमारे ही आसपास ऐसे लोग रहते हैं जिनसे हमारा कभी सामना तक नहीं होता। न हमने उन्हें देखा, न कभी उनके बारे में कोई चर्चा सुनी। वे गुमनाम-से जीवन जीते रहते हैं, मानो इस दुनिया में उनका होना या न होना बराबर हो।
परन्तु जब गरीबी की अंधेरी सुरंग से कोई हीरा निकलकर अपनी चमक बिखेरता है, तभी जाकर लोगों को उनके अस्तित्व का एहसास होता है।
दरअसल, यही समाज की परंपरा रही है—सदियों से।
कुछ सक्षम लोग अपने स्वार्थ और अहंकार में डूबे हुए उन गरीब और कमजोर लोगों की उपेक्षा करते आए हैं, जिनकी मेहनत और संघर्ष असल में सभ्यता की रीढ़ है। नतीजा यह होता है कि गरीबी से जूझते लोग अपने अधिकारों और सपनों से वंचित रह जाते हैं। उनका चिंतन केवल रोटी और पेट भरने तक सिमट कर रह जाता है।
ऐसे माहौल में, कोई गरीब इंसान यदि अपने भविष्य के लिए सपने देखना चाहे, तो यह असंभव-सा प्रतीत होता है।
उनकी दुनिया का सच यही है—
आज का चूल्हा कैसे जलेगा?
कल उनके लिए कोई मायने नहीं रखता।
फिक्र तो बस वो आज की करते,
कल का उनको कुछ पता नहीं।
ये दोष है गरीबी का, बंदे,
इसमें उनकी कोई खता नहीं।
लेकिन इस समाज को इन बातों से कोई फर्क़ नहीं पड़ता। यह दुनिया बस उसी हीरे को पहचानती है जो चमकता है, न कि उस कारीगर को जिसने उसे तराशा है।
ऐसे ही एक साधारण-से घर का बेटा, जिसने गरीबी के दलदल से निकलकर सफलता के आकाश को छू लिया, आज लोकनायक कहलाता है। उसी के संघर्ष और जीत की सच्ची कहानी मैं आपको सुनाने जा रहा हूँ।
अपनी झूठी शान के मद में
तंज जो अक्सर कसते थे,
आज वही पर कमल खिला—
इस कीचड़ को जो समझते थे।
यह कहानी है मध्यप्रदेश के रीवा जिले में रहने वाले अशोक की।
अशोक ने कठिनाइयों से हार मानने के बजाय हर ठोकर को सीढ़ी बनाया। वह सौ बार गिरा, लेकिन हर बार और मज़बूती से उठा। आखिरकार एक दिन समय भी उसके साहस के आगे झुक गया।
कहानी की शुरुआत बड़ी सादी थी।
अशोक के पिता, बालू, दिहाड़ी मजदूर थे। माँ नैया गृहिणी थी। तीन लोगों का यह छोटा-सा परिवार गरीबी में भी किसी तरह खुश रहकर गुज़ारा कर लेता था।
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किरदारों का परिचय
बालू – अशोक का पिता, दिहाड़ी मजदूर
नैया – अशोक की माँ
अशोक – पाँच साल का मासूम बेटा
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सुबह का वक्त था।
बालू अपनी झोपड़ी के कोने में रखी पुरानी टोपी पहनकर काम पर जाने की तैयारी कर रहा था।
बालू (तेज़ आवाज़ में):
“नैया… अरे कहाँ चली गई? जल्दी कर! नौ बज चुके हैं। मालिक डाँट लगाएगा अगर देर हो गई तो। ज़रा टिफ़िन तो दे।”
नैया (चिढ़कर, पर प्यार से):
“काहे गाली देगा मालिक? उ खुद तो रात में देर से छोड़त है। थोड़ा देर हो गई तो का फ़र्क पड़त है?”
बालू ने हाँफते हुए टिफ़िन उठाया और रोज़ की तरह दिहाड़ी पर निकल गया।
इधर, पाँच साल का अशोक झोपड़ी के बाहर बैठा था। सड़क से बच्चे स्कूल जा रहे थे। किसी के कंधे पर लाल बैग था, तो किसी के पास नयी किताबें। उन बच्चों की हँसी और शोर देखकर अशोक की आँखें चमक उठीं।
अशोक (उत्साह से):
“अम्मा… अम्मा… बाबूजी कहे थे न, हम भी स्कूल जाएँगे? देखो, सब बच्चे थैला लेकर जा रहे हैं। मैं भी स्कूल जाऊँगा अम्मा, चल न… बाहर देख!”
वह अपनी माँ की साड़ी पकड़कर खींचने लगा। नैया मुस्कुराई और बेटे के बालों पर हाथ फेरते हुए बोली—
नैया:
“हाँ बेटा, तोहका भी भेजेंगे स्कूल। अब चल, जल्दी नहा ले।”
अशोक की मासूम आँखों में सपने थे। नैया ने उसे खाना खिलाकर सुलाया। लेकिन खुद की आँखों में नींद कहाँ?
वह बाहर चौखट पर बैठ गई। ठंडी धूप में बैठी नैया के मन में तूफ़ान मचा हुआ था।
“क्या मैं अपने बच्चे को हमेशा यूँ ही दिलासा देती रहूँगी? क्या अशोक भी बालू की तरह दिहाड़ी मजदूर बनेगा?”
माँ का दिल अपने लिए चाहे कठोर हो जाए, लेकिन बच्चे के भविष्य के सवाल पर वह मोम की तरह पिघल जाता है। यही सोचते-सोचते उसे पता ही न चला कि दोपहर कब शाम में बदल गई।
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खो कर बच्चों की खुशियों में,
खुद का उसको होश नहीं है।
एक माँ के दिल की ममता है,
इसमें दिल का कोई दोष नहीं है।
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स्कूल से लौटते बच्चों का शोर सुनकर नैया चौंकी। वह चौखट से उठकर झोपड़ी में गई। अशोक गहरी नींद में सो रहा था। उसके मासूम चेहरे को देखकर नैया की आँखें भर आईं। आँसू गिरते-गिरते रह गए।
उसी क्षण उसने मन ही मन एक संकल्प लिया—
“कुछ भी हो जाए, मेरा अशोक मजदूरी नहीं करेगा। मैं इसे पढ़ाऊँगी, इसे स्कूल भेजूँगी।”
उस दिन से नैया के दिल में उम्मीद का छोटा-सा दीपक जल उठा। अब वह बालू के घर लौटने का इंतज़ार कर रही थी, ताकि यह बात उससे कह सके।
रात के लगभग आठ बजे थे।
चारों ओर अँधेरा गहराने लगा था, कहीं-कहीं मिट्टी के घरों से लालटेन की धुंधली रोशनी छनकर बाहर आ रही थी।
बालू थका-हारा, धूल और पसीने से लथपथ, धीरे-धीरे घर की ओर कदम बढ़ाता हुआ झोपड़ी के दरवाज़े पर पहुँचा।
जैसे ही वह अंदर आया, बेसब्री से उसका इंतज़ार करती नैया लोटा भर पानी लेकर दौड़ी और बोल पड़ी—
नैया (व्याकुल होकर):
“ई कौनो वक़्त है तुम्हरे लौटन का? हम कब से ताकत रह गइनी…”
बालू ने पानी पीते हुए भारी साँस ली और थकान से बोला—
बालू:
“अरे नैया, आज छत की लकड़ी बाँधनी थी। काम भारी रहा, सो देर हो गई। चिन्ता तो हमरा ई है कि दो-चार दिन में जब ई छत का काम पूरा हो जाई, तब हम कहाँ काम खोजेंगे? लकड़ी खुले बिना तो और काम रुकिहे।”
नैया ने बालू के कंधे से मिट्टी झाड़ी और बोली—
नैया:
“अरे तुम चिंता काहे करत हो? भगवान पर भरोसा रखो, काम मिल जाई। चलो, अब खाना खा लो।”
बालू ज़मीन पर बिछी पुरानी चटाई पर बैठ गया। थाली सामने रख दी गई। उसने निवाला तोड़ते हुए इधर-उधर देखा और पूछा—
बालू:
“अशोक दिखाई नहीं दे रहा है… सो गया का?”
नैया का चेहरा अचानक बदल गया। उसकी आँखों में दबी हुई कसक झलकने लगी।
नैया (रुँधी आवाज़ में):
“हाँ, सो तो गया है। लेकिन सुबह जब छोटे-छोटे बच्चन को थैला-किताब लेकर स्कूल जात देखत है न… तो उ भी ज़िद करता है कि हमहुँ स्कूल जाएँ। बालू, अब हम उसका मन नहीं तोड़ सकत। हम उसको स्कूल भेजब ही… चाहे हमका भी तुम्हरे संग मजदूरी काहे न करनी पड़े।”
नैया के शब्दों में करुणा थी, लेकिन साथ ही एक माँ का संकल्प भी।
बालू चुपचाप उसे देखता रहा। फिर धीमे स्वर में बोला—
बालू:
“ठीक है… तू कहत है तो सही। जब ई छत का काम पूरा हो जाई, तब हम अशोक का स्कूल में दाखिला कराइ देंगे। अब तू चिन्ता मत कर। खाना खा ले और आराम कर।”
नैया के मुरझाए चेहरे पर फिर से उम्मीद की हल्की-सी रोशनी चमक उठी। उसकी आँखें नम थीं, पर दिल में एक नयी आस ने जन्म ले लिया।
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अगले दिन…
बालू हमेशा की तरह तगाड़ी उठाकर काम पर निकला, पर इस बार उसके मन में उथल-पुथल मची हुई थी।
नैया की बातें उसके दिल में बार-बार गूंज रही थीं।
“हम अशोक को स्कूल भेजेंगे… चाहे मजदूरी ही क्यों न करनी पड़े।”
उसने ठान लिया—आज मालिक से दस दिन की दिहाड़ी माँग लेगा। उसी पैसे से बेटे की पढ़ाई शुरू होगी।
दोपहर का वक्त था। मालिक जैसे ही आया, बालू ने सर से गिट्टी की तगाड़ी उतारी और संकोच से उसके पास जाकर दोनों हाथ जोड़ दिए।
बालू (गिड़गिड़ाते हुए):
“मालिक… अगर आप हमारी दस रोज़ की दिहाड़ी अभी दे देते, तो बहुत कृपा होती। हम अपने बच्चे को स्कूल भेजना चाहत हैं।”
मालिक ने पहले तो उसे ऊपर से नीचे तक देखा और फिर बेरहमी से ठहाका लगाते हुए बोला—
मालिक (व्यंग्य से):
“क्या करेगा उसे स्कूल भेजकर? पढ़-लिख लेगा तो बड़ा होकर मजदूरी करने में शर्म आएगी। अरे, गरीब का बच्चा मजदूर ही अच्छा लगता है। किताबें-कापी पर इतना खर्चा कहाँ से करोगे तुम?
बेहतर है उसे यहीं साथ लाओ, गिट्टी-रेत उठाना सीख लेगा तो तुम्हारा हाथ बटाएगा।”
बालू स्तब्ध रह गया। पर उसने हिम्मत करके फिर कहा—
बालू (आवाज़ दबाकर):
“मालिक, बच्चा तो छोटा है… पढ़-लिख लेगा तो उसका भविष्य सुधर जाई…”
मालिक ने उसकी बात बीच में काट दी और ठंडी, कठोर आवाज़ में बोला—
मालिक:
“सुनो बालू, अभी मैं तुम्हें दस दिन की दिहाड़ी नहीं दूँगा। कल छत डालनी है, उसके बाद लकड़ी खुले तक तुमको यहीं रहना पड़ेगा। अगर अभी पैसा दे दिया और तुम कहीं और निकल गए, तो हमको नुकसान हो जाएगा।
समझे? तुम्हारी दिहाड़ी लकड़ी खुलने के बाद ही मिलेगी।”
यह कहकर मालिक वहाँ से चलता बना।
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उस निर्दयी के शब्द तीर बनकर बालू के दिल को चीर गए।
जिस उम्मीद को लेकर वह मालिक के पास गया था, वही उम्मीद अब राख में बदल गई थी।
बेचारा बालू वहीं गिट्टी के ढेर पर बैठ गया और आँसू उसके गालों पर बह निकले।
कविता-सी व्यथा:
शब्दों से अपने वो निर्दयी,
एक भोले दिल को चीर गया।
आशा की राहों पर जालिम,
खींच वो एक लकीर गया।
शाम ढल चुकी थी।
सभी मजदूर काम खत्म कर अपने-अपने घर जाने लगे।
उन्होंने देखा—बालू गिट्टी के ढेर पर बैठा रो रहा था।
कुछ साथी पास आए, उसका कंधा थपथपाया और बोले—
साथी मजदूर:
“अरे बालू, मालिक की बात को दिल पे मत धरो। गरीब के बच्चे का स्कूल जाना कोई रोक नहीं सकता। धीरे-धीरे सब ठीक होई। मालिक कौन होता है तय करने वाला?”
उनकी बातों से बालू का दर्द तो कम न हुआ, पर उसने आँसू पोंछ लिए।
दिल पर पत्थर रखकर वह झोपड़ी की ओर चल पड़ा।
पर भीतर ही भीतर मालिक की बातें उसके दिल पर साँप की तरह लोट लगा रही थीं।
घर पहुँचकर उसे यही डर सताने लगा कि नैया को क्या जवाब देगा?
कैसे बताए कि मालिक ने सपनों की राह रोक दी है?
रात गहरी हो चुकी थी।
सन्नाटा चारों ओर छा गया था, बस कहीं-कहीं कुत्तों के भौंकने की आवाज़ आ रही थी।
बालू आँसुओं को आँखों में ही रोकने की असफल कोशिश करता हुआ भारी क़दमों से घर पहुँचा। उसके मन का बोझ उसके थके शरीर से कहीं ज्यादा भारी था।
झोपड़ी में प्रवेश करते ही उसने काँपती आवाज़ में पुकारा—
बालू:
“नैया… पानी लाओ ज़रा…”
नैया तुरंत दौड़कर आई। उसके चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ़ झलक रही थीं। उसने लोटा बालू के हाथ में पकड़ाते हुए देखा कि आज बालू की आँखें बुझी हुई-सी हैं।
बालू (थके स्वर में):
“नैया… आज बहुत थक गया हूँ। भूख भी नहीं है। मैं सोने जा रहा हूँ। तू भी खाना खा ले… और सो जा।”
यह कहते-कहते बालू ने बड़ी मुश्किल से अपने आँसुओं को भीतर ही भीतर कैद कर लिया।
पर एक पत्नी कब अपने पति का दर्द नहीं पहचानती?
नैया ने उसके चेहरे को गौर से देखा और चिंतित स्वर में पूछ बैठी—
नैया:
“का बात है बालू? बड़े परेशान लागत हो। मालिक कुछ कहे का तुमका? बताओ न… चुप काहे हो?”
बालू ने मजबूर मुस्कान ओढ़ी और झूठ बोलने की कोशिश की।
बालू (बनावटी हँसी के साथ):
“नई रे नैया… आज काम बहुत भारी था, सो बस थकान है। मालिक ने कुछ नाहीं कहा। अब तू खाना खा ले… चिंता मत कर।”
पर नैया उसकी आँखों से झाँकते दर्द को पढ़ चुकी थी।
नैया (संदेह से):
“नई बालू… कुछ तो बात है, जो तू हमसे छुपावत है। बताओ न… आखिर हुआ का?”
काफ़ी देर तक चुप रहकर, खुद को सँभालते हुए बालू ने अचानक अपना दर्द बहा दिया।
उसकी आँखों से आँसू बह निकले, और वह फूट-फूटकर रो पड़ा।
बालू (टूटे स्वर में):
“नैया… आज मालिक से दस दिन की दिहाड़ी माँगी रही। सोचे थे, उसी से अशोक का स्कूल भरती कराएंगे। लेकिन मालिक हँस पड़ा… कहत रहा—गरीब का बच्चा पढ़-लिख लेगा तो मजदूरी करने में शर्म करेगा। कह रहा था—अपने संग काम पर लाओ, तगाड़ी उठाना सीख जाएगा।
ऊ निर्दयी कहत रहा—अभी दिहाड़ी भी नहीं देगा। छत की लकड़ी खुले के बाद ही मिलेगा पैसा। नैया… ई सब सुनकर मन टूट गया। बताओ, कैसे भेजें अशोक को स्कूल?”
बालू का कंधा काँप रहा था। उसके आँसू ज़मीन पर टपक रहे थे।
नैया ने तुरंत उसके आँसुओं को पोंछा और सख़्त लेकिन प्यार भरे स्वर में बोली—
नैया (दृढ़ स्वर में):
“बालू, तुमका रोना अच्छा नहीं लागत। मालिक कौन होत है हमका बतावे वाला कि हमार बच्चा पढ़ेगा कि नहीं? आज ऊ पैसा नईं दिया, कल दे देगा। लेकिन एक बात याद रखो—अशोक जरूर स्कूल जाई। चाहे हम खेत में मजूरी करें, चाहे अपने गहने बेच दें, पर उसका सपना अधूरा न रही। गरीब के सपने अगर सच न हों, तो जीने का हौसला कौन देगा?”
बालू ने भर्राए गले से कहा—
बालू:
“पर नैया… सरकारी स्कूल तो बहुत दूर है। हम सोचे थे पास के प्राइवेट स्कूल में डालें, ताकि तू उसे लिवा-दे सके। पर उसकी फीस बहुत है… किताबें-कापी का खर्चा भी। सोच-सोच कर मन डर जात है।”
नैया ने उसके हाथ पकड़ लिए। उसकी आँखों में आँसू चमक रहे थे, लेकिन आवाज़ दृढ़ थी।
नैया:
“पैसे जुटेंगे बालू… धीरे-धीरे। तू हिम्मत मत हार।
याद रखो—बच्चा जब मुस्कुराके ‘अम्मा, मैं स्कूल जाऊँगा’ कहत है न, तब भगवान भी सुनत है।
हम उसका सपना टूटने नहीं देंगे।”
बालू के चेहरे पर हल्की सी चमक लौटी।
उसने गहरी साँस ली, जैसे एक नया साहस उसके भीतर जन्म ले रहा हो।
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अगली सुबह…
सूरज की किरणें झोपड़ी में झाँक रही थीं। पिछली रात का दर्द बालू ने अपने सीने में दबा लिया और खुद को समझाया—
“कोई बात नहीं… कुछ दिन और सही। हम हार नहीं मानेंगे।”
अशोक आँखें मलते हुए उठा और भागकर पिता से लिपट गया।
उसकी नन्ही हँसी सुनकर बालू का दिल पिघल गया। वह चुपचाप बेटे को निहारता रहा और मन ही मन सोचा—
“कैसा फूल-सा बच्चा है… और मालिक कहत है इसे मजदूरी पर लाओ! हट… पागल है मालिक! अगर उसका बच्चा पढ़ सकता है, तो हमरे अशोक का हक़ काहे छीन ले?”
बालू सोचों में डूबा रहा। फिर रोज़ की तरह तैयार होकर दिहाड़ी पर निकल गया।
इधर नैया अपने दैनिक कामों में जुट गई और अशोक मोहल्ले के बच्चों के साथ खेलने चला गया।
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अशोक की उम्र तो केवल पाँच साल थी, पर उसमें कुछ अलग ही बात थी।
मोहल्ले में पंद्रह-बीस बच्चे खेलते थे, जिनमें से कई उससे दुगुनी उम्र के थे।
फिर भी जब खेल शुरू होता, तो सबकी नज़रें अशोक की ओर होतीं—
“अरे, अशोक बताओ, कौन-सा खेल खेलें?”
“अशोक, तुम ही तय करो न!”
उसकी मासूम आँखों में ऐसा आत्मविश्वास था कि सब उसकी बात मान जाते।
ज्ञान किताबों का न था, फिर भी
मुख्तियार, वो बन बैठा बस्ती का।
अभिमान भी न था खुद पर उसको,
खेवैया था वो, हर एक कश्ती का।
अशोक में नेतृत्व का गुण स्वाभाविक था। खेल-खेल में जब भी कोई कठिनाई आती, तो सबसे पहले वही आगे बढ़ता।
यह गुण उसकी मासूम उम्र में ही उसे बाकी बच्चों से अलग करता था।
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एक दिन की बात है।
खेलते-खेलते दो बच्चे आपस में झगड़ पड़े। आवाज़ ऊँची होने लगी। बाकी बच्चे तमाशा देख रहे थे। तभी अशोक दौड़कर उनके बीच आ गया।
अशोक (समझाते हुए):
“अरे… झगड़ा मत करो। अगर तुम्हारे अम्मा-बाबूजी ने देख लिया तो कल से तुमको खेलने भी नहीं आने देंगे। घर में कैद कर देंगे। फिर हम सब अकेले खेलेंगे।”
उसकी बात सुनकर दोनों बच्चे चुप हो गए और झगड़ा खत्म कर दिया।
यह दृश्य एक बुज़ुर्ग व्यक्ति पास ही बैठे-बैठे देख रहे थे। उनके चेहरे पर आश्चर्य झलकने लगा।
उन्होंने इशारे से अशोक को पास बुलाया और मुस्कुराते हुए पूछा—
बुज़ुर्ग:
“बेटा, जब वो दोनों झगड़ रहे थे, तो देखने में बड़ा मज़ा आ रहा था। हम सब जानना चाह रहे थे कि कौन जीतेगा। फिर तुमने उनका झगड़ा क्यों छुड़वाया?”
बुज़ुर्ग बच्चे के भोले-से उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे थे।
अशोक ने मासूमियत से जवाब दिया—
अशोक:
“बाबा, अगर वो दोनों लड़ते रहते और किसी बड़े ने देख लिया होता, तो हमारा खेल ही बंद हो जाता। इसलिए मैंने उन्हें रोका।”
उसकी मासूम बात सुनकर बुज़ुर्ग का दिल भर आया।
उनकी आँखें चमक उठीं और होंठों से अनायास ही शब्द निकले—
बुज़ुर्ग (आशीर्वाद भरे स्वर में):
“बेटा… तुम बड़े होकर आसमान से भी बड़े बनोगे। कोई तुम्हारे बराबर बड़ा नहीं होगा।”
अशोक की आँखें कौतूहल से फैल गईं।
अशोक (जिज्ञासा से):
“सच में बाबा? इतना बड़ा?”
बुज़ुर्ग मुस्कुराए और उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोले—
बुज़ुर्ग:
“हाँ, सच में। अब जाओ, शाम हो गई है। अंधेरा होने से पहले घर पहुँच जाओ।”
अशोक और उसके साथी खुशी-खुशी अपने-अपने घर लौट गए।
पर उस बुज़ुर्ग की आँखें देर तक चमकती रहीं—मानो उन्होंने उस मासूम बच्चे में भविष्य का एक लोकनायक देख लिया हो।
(1)
समय जैसे पंख लगाकर उड़ गया। देखते ही देखते पूरा एक साल बीत चुका था। बालू ने अपनी मुट्ठी भर कमाई से धीरे-धीरे कुछ पैसे जोड़ लिये थे। हर सिक्का जैसे उसकी मेहनत का पसीना था, हर नोट उसके सपनों का बोझ समेटे हुए। आखिरकार, उस दिन ने दस्तक दी जब उसने अपने बेटे अशोक का दाखिला पास के स्कूल में करवा ही दिया।
किताबें, बैग, पेंसिल, खाने का डिब्बा—सब उसने खरीद दिये। पहली बार बालू और नैया ने महसूस किया कि उनकी ज़िंदगी में भी कोई नया उजाला उतर आया है। अशोक अब छह साल का हो चुका था। उसकी आँखों में मासूम सपनों की चमक थी, और दिल में उन सपनों को छूने की तड़प।
(2)
“अम्मा…देखो न… मेरी किताब कितनी अच्छी है ना…!”
अशोक अपनी छोटी-सी काया से भारी किताब उठाए खुशी से उछल रहा था। किताब के पन्ने पलटते हुए वो कहता—“देखो… इसमें कबूतर भी है… और ये देखो खरगोश भी है…! अम्मा… देखो मेरा नया बैग… और ये डिब्बा जिसमें आप मुझे खाना दोगी… कितना सुंदर है न?”
नैया बेटे की मासूम खुशी में डूबती चली गई। उसकी आँखों से बरबस आँसू छलकने को हुए पर उसने जल्दी से उन्हें पोंछ लिया। वह जानती थी ये आँसू दुःख के नहीं, बल्कि उस अनमोल सुख के थे जिसकी कल्पना उसने बरसों पहले की थी।
“हाँ बेटा… बहुत सुंदर है तेरी किताब, बैग और डिब्बा भी। अब तू जल्दी से सो जा… कल तुझे स्कूल जाना है।”
नैया ने बेटे की पीठ थपथपाई।
पर अशोक का मन कहाँ मानने वाला था। वह दौड़कर अपना बैग उठा लाया, किताबों को सीने से लगाया और धीरे-धीरे नींद की गोद में चला गया। बैग उसके सीने से ऐसे चिपका हुआ था मानो उसमें उसके सपनों की दुनिया बसी हो।
(3)
अगली सुबह जैसे एक नया पर्व लेकर आई। कोयल की मधुर आवाज़, पंछियों की चहचहाहट, हल्की-हल्की फुहारें, गीली मिट्टी की सोंधी खुशबू—मानो पूरी धरती ने अशोक के पहले स्कूल-दिन का स्वागत करने का प्रण लिया हो।
नैया तड़के उठकर बालू के लिए टिफ़िन तैयार करने लगी। उधर अशोक की नींद खुली तो वह सीधे माँ के पास दौड़ आया—
“अम्मा… अम्मा… कब चलेंगे? मैंने बैग में किताब भी रख ली है… अब और कितनी देर है?”
इतने में बालू दिहाड़ी पर जाने के लिए तैयार होकर बाहर आ रहा था। उसने बेटे को गोद में उठाते हुए मुस्कुराकर पूछा—
“कहाँ जाओगे मेरे लाल?”
अशोक ने भोलेपन से कहा—“स्कूल जाऊँगा बाबूजी… अम्मा कह रही थी कि वो मुझे छोड़ने चलेंगी। देखो, मैंने कबूतर वाली किताब रख ली है… और डिब्बा भी, पर उसमें खाना खाली है… रुको… अभी अम्मा से भरवा लाता हूँ।”
उसकी मासूम हड़बड़ी देखकर बालू और नैया दोनों हँस पड़े। अगले ही क्षण बालू ने मन ही मन ईश्वर का धन्यवाद किया— “हे प्रभु! मेरे बेटे का सपना अधूरा न रहे।”
(4)
नैया ने बेटे को नहलाया-धुलाया। छोटे-छोटे हाथों में किताबें रखीं, डिब्बा भरा और फिर स्नेह से कहा—“देख बेटा, सब बच्चे जब खाना खाएँ तो तू भी खाना खा लेना… और पढ़ाई अच्छे से करना… किसी से झगड़ा नहीं करना।”
अशोक अपनी माँ का हाथ थामे उछलता-कूदता स्कूल पहुँचा। स्कूल की बड़ी-सी इमारत देखकर उसकी आँखें फैल गईं। दर्जनों बच्चे इधर-उधर भाग रहे थे, कोई रो रहा था तो कोई खिलखिला रहा था।
नैया ने झुककर बेटे के माथे को चूमा और कहा—“बेटा, अब मैं जा रही हूँ… शाम को लेने आऊँगी। तू अच्छे से पढ़ाई करना।”
अशोक ने भोलेपन से हामी भरी और फिर स्कूल की भीड़ में खो गया।
(5)
घर लौटते वक्त नैया के मन में जाने कितनी ही चिंता उमड़ आई।
“पता नहीं मेरा लाल रो तो नहीं रहा होगा…? क्या उसने टिफ़िन खोला होगा…? अगर नहीं खोला तो भूखा रह जाएगा…! क्या टीचर उसे डाँट तो नहीं देंगी…?”
चार घंटे का समय जैसे पहाड़ बन गया। हर घड़ी उसके लिए बोझिल थी। आखिर वह बेचैनी में स्कूल का समय पूरा होने से एक घंटा पहले ही पहुँच गई।
घंटी बजी… और गेट खुला। बच्चे एक-एक कर बाहर निकलने लगे। नैया की आँखें बस अपने लाल को खोज रही थीं। और तभी…
“अम्मा… अम्मा…!”
अशोक दौड़ता हुआ आया और माँ से लिपट गया।
“अम्मा… पता है… आज टीचर हमें वन, टू, थ्री सिखाई… और कहानी भी सुनाई। मैंने खुद ही डिब्बा खोला और खाना खा लिया। और अम्मा, टीचर ने होमवर्क भी दिया है।”
नैया उसे सुनती रही, बस सुनती रही। उसका मन भीतर से भर आया। बेटे की हर बात उसके लिए किसी गीत से कम न थी।
(6)
घर लौटकर अशोक मोहल्ले के बच्चों संग खेलने चला गया। खेल खत्म होने के बाद वह बैठा-बैठा होमवर्क करता रहा। उसकी छोटी-सी उंगलियाँ पेंसिल थामे लड़खड़ाती थीं, लेकिन उसमें एक गज़ब का उत्साह था।
धीरे-धीरे थककर उसकी आँखें बंद होने लगीं। किताबें अभी भी खुली थीं और पेंसिल हाथ में ही थी। नैया ने आकर उसे उठाया, थोड़ा-सा खाना खिलाया और सीने से लगाकर सुला दिया।
उस रात बालू देर से घर आया। नैया ने बेटे की बातें बताते-बताते अपनी आँखों से आँसू पोंछे और धीरे से कहा—
“आज हमारा अशोक बहुत खुश था… उसने खुद डिब्बा खोलकर खाना खाया। और जानो, उसने मुझसे कहा… अम्मा, मैं भी बड़ा होकर किताबें लिखूँगा…।”
बालू ने थकी मुस्कान के साथ अपनी पत्नी की ओर देखा। उसके होंठ कुछ नहीं बोले, मगर आँखों से यही कहा— “सपना सच होगा… चाहे जितना कठिन हो, पर सच होगा।”
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(काव्यांत)
ये दौर जो बचपन का होता है,
लौटकर फिर ये आता नहीं…
न कोई फिक्र, न कोई बोझ,
थकान से भी कोई नाता नहीं।
संघर्ष और इम्तिहान
सर्दियों की चिंता
सर्दियों की हल्की धूप झोपड़ी की टूटी छत से छन-छनकर ज़मीन पर बिखर रही थी। बाहर चारपाई पर बैठा बालू गहरे सोच में डूबा था। चेहरे पर चिंता की रेखाएँ साफ़ नज़र आ रही थीं। नैया ने पास आकर उसके सिर पर हाथ रखा और धीमी आवाज़ में पूछा—
“का हुआ जी… बड़े निराश लागत हो आज?”
बालू ने गहरी सांस छोड़ते हुए कहा—
“हाँ नैया… तीन महीना बीत गया। अब अगले तीन महीनों की स्कूल फीस भरनी है। काम-काज का कोई ठिकाना ही नहीं। कितने दरवाज़े खटखटाए, पर कहीं काम नहीं मिला। समझ नहीं आता, पैसों का इंतज़ाम कैसे होगा।”
नैया की चिंता
नैया ने धीरे से हिम्मत बंधाई—
“तुम कहो तो हम अपने भइया से कुछ पैसे माँग लें। जब तुम्हें काम मिल जाए तब लौटा देंगे।”
बालू ने झटके से सिर हिलाया—
“नहीं रे नैया! उधार लेकर इज़्ज़त का बोझ मत बढ़ा। कुछ-न-कुछ इंतज़ाम हम खुद करेंगे। आज अशोक को लेने मैं ही स्कूल जाऊँगा। मास्टर साहब से कहूँगा कि कुछ दिनों की मोहलत दें। बाकी तो सब अब राम भरोसे ही है। जो कुछ हमारे बच्चे की किस्मत में लिखा है, वही होगा।”
नैया चुप हो गई। उसकी आँखें भर आईं, मगर उसने आँसू बाहर न आने दिए। वह जानती थी, उसके रो देने से बालू और टूटा महसूस करेगा।
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प्रधानाचार्य से मुलाक़ात
दोपहर ढल चुकी थी। छुट्टी का समय नज़दीक आते ही बालू भारी कदमों से स्कूल पहुँचा। उसके मन में तरह-तरह की आशंकाएँ थीं। वह सीधे प्रधानाचार्य के दफ्तर में गया और हाथ जोड़कर बोला—
“मालिक… मैं अशोक का बाप हूँ। आज उसकी तीन महीनों की फीस भरनी थी, पर लाख कोशिशों के बावजूद पैसे का इंतज़ाम न हो सका। बस कुछ दिन की मोहलत दे दीजिए… आपका बड़ा एहसान होगा।”
यह कहते-कहते उसकी आवाज़ भर्रा गई और वह प्रधानाचार्य के पैरों में झुक गया।
प्रधानाचार्य ने उसे हाथ पकड़कर उठाया और स्नेह से कहा—
“अरे, तो आप हैं अशोक के पिता? मिलकर खुशी हुई। देखिए, अशोक हमारे स्कूल का सबसे होनहार बच्चा है। उसकी आँखों में जो चमक है, वह मैंने बरसों में किसी बच्चे में नहीं देखी। अगर कुछ आर्थिक परेशानी है तो भी कोई बात नहीं। एक महीना और ले लीजिए। इस बीच पैसे का इंतज़ाम कर लीजिए।
सच कहूँ तो मेरा बस चले तो अशोक जैसे बच्चों से मैं कभी फीस ही न लूँ। ऐसे नायाब हीरे तो सदियों में एक बार जन्म लेते हैं।”
बालू की आँखें नम हो गईं। उसका सीना गर्व से चौड़ा हो गया। पहली बार उसे लगा कि उसका बेटा सचमुच किसी और ही मिट्टी का बना है।
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छुट्टी की घंटी
थोड़ी देर बाद छुट्टी की घंटी बजी। बच्चे दौड़ते हुए बाहर आने लगे। बालू की बेचैन नज़रें भीड़ में अपने अशोक को ढूँढ रही थीं। तभी उसने दूर से देखा—अशोक भागता हुआ आ रहा है।
“बाबूजी!” पुकारते ही वह सीधा उनकी गोद में चढ़ गया।
अशोक ने उत्सुकता से पूछा—
“बाबूजी, आज अम्मा काहे नहीं आई हमें लेने?”
बालू ने मुस्कराते हुए उसके गाल थपथपाए—
“क्योंकि आज हम तुम्हें घुमाने ले चलेंगे। चॉकलेट दिलाएँगे… और फिर घर जाकर लुका-छिपी खेलेंगे।”
अशोक खिलखिला उठा और बाबूजी की गर्दन से लिपट गया। उसकी मासूम हँसी में बालू की सारी थकान खो गई।
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मन का संकल्प
घर लौटते समय बालू के मन में केवल एक ही विचार उमड़-घुमड़ रहा था—
“ये मासूम बच्चा, जो पूरी बस्ती की शान बन गया है… क्या मैं इसके सपनों को अधूरा छोड़ दूँगा? नहीं! चाहे जान चली जाए, मगर इसकी पढ़ाई कभी नहीं रुकने दूँगा।”
उसके दिल में गर्व और डर दोनों का तूफ़ान चल रहा था। गर्व इस बात का कि उसका बेटा सबका चहेता है, और डर इस बात का कि एक महीने में तीन महीने की फीस जुटाना पहाड़ चढ़ने जैसा कठिन है।
शाम को अशोक मोहल्ले के बच्चों के साथ हँसते-खेलते मस्ती में था। उसके हाथ में चॉकलेट थी और चेहरे पर मासूम खुशी। दूर से उसे निहारते हुए बालू के चेहरे पर हल्की मुस्कान थी, लेकिन मन के भीतर गहरी बेचैनी छिपी हुई थी।
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भावपूर्ण पंक्तियाँ
> “खुशियों का पल बीतता जा रहा था,
वक़्त इम्तिहान का करीब आ रहा था।
आगे क्या होगा, वो न जानता था,
मगर आज में ही जीता जा रहा था।”
अडिग संघर्ष : हिम्मत की मिसाल
रात की चिंता
सर्द रात थी। झोपड़ी के बाहर अलाव जल रहा था। लकड़ियों की चटख से वातावरण में हल्की गर्मी थी। बालू चारपाई पर बैठा हाथ सेंक रहा था, मगर उसके दिल में बर्फ-सी ठंडक थी। आँखें दूर अंधेरे में किसी अदृश्य बिंदु पर टिकी थीं। उसकी सोच केवल एक ही बिंदु पर अटकी थी—पैसे का इंतज़ाम।
उसके मन में बार-बार यही सवाल उठ रहा था—
“क्या मैं अपने बेटे की पढ़ाई रुकने दूँ? क्या ये सपना यहीं टूट जाएगा?”
काफी देर सोचने के बाद उसने दृढ़ निश्चय कर लिया—
“कल सुबह से काम की तलाश में निकल पड़ूँगा। चाहे कैसा भी काम हो—ईंट ढोना पड़े, बोरे उठाने पड़ें, या सड़क खोदनी पड़े—मैं करूँगा। पर अशोक की पढ़ाई रुकने नहीं दूँगा।”
थके-हारे मन को यह संकल्प कुछ सुकून देता है। अलाव की आग बुझते-बुझते वह भीतर चला गया और बिस्तर पर लेट गया। आँखें बंद हुईं, पर नींद दूर थी। बार-बार उसे अशोक का हँसता चेहरा याद आता और उसकी छाती भारी हो जाती।
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काम की तलाश
सुबह का सूरज उगा। हल्की धुंध फैली हुई थी। बालू ने रोटियाँ बाँधकर झोले में रखीं और घर से निकल पड़ा। उसके कदम भारी थे पर आँखों में दृढ़ता थी।
पूरा सुबह वह इधर-उधर भटकता रहा—किसी दुकान पर चौकीदारी, कहीं मज़दूरी, कहीं बोरी उठाने का काम माँगता, लेकिन हर जगह से निराशा हाथ लगी। दोपहर ढलने लगी, भूख और थकान ने शरीर तोड़ दिया, मगर मन अभी भी उम्मीद से भरा था।
“आखिरी कोशिश और कर लेता हूँ…”—सोचकर उसने अपने कदम अनाज मंडी की ओर मोड़े।
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अनाज मंडी का संघर्ष
मंडी में हर तरफ़ हलचल थी। ट्रकों पर अनाज के बोरे लदे जा रहे थे। वहाँ पहुँचते ही उसने मालिकों से हाथ जोड़कर कहा—
“मालिक, काम मिल जाए तो जान लगा दूँगा।”
एक ठेकेदार ने उसे देखा और बोला—
“चलो, ट्रक लोड करना है। बोरे उठाने पड़ेंगे। मेहनत चाहिए।”
बालू के चेहरे पर हल्की मुस्कान आई। उसने तुरंत काम पकड़ लिया।
भारी चावल के बोरे उसके कंधों पर रखे जाते और वह सीढ़ी चढ़कर ट्रक में पहुँचाता। पसीने से भीगा उसका कुर्ता शरीर से चिपक गया था। छह घंटे तक लगातार वह बिना रुके बोरे ढोता रहा। हर बोरे के साथ उसे लगता मानो वह अपने बेटे के सपनों का बोझ उठा रहा हो।
शाम ढले जब ट्रक पूरा भर गया, तब उसे मजदूरी मिली। हाथ में चंद नोट थे, मगर उनमें उसे भविष्य की पूरी ताकत नज़र आई।
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घर वापसी
थका-हारा जब घर पहुँचा तो नैया ने तुरंत दरवाज़े पर आकर पूछा—
“का हुआ? पूरा दिन बाहर रहे। कछु खाए भी कि नाहीं? और काम मिला कि नाहीं?”
बालू ने थकान भरी मगर संतोषजनक मुस्कान के साथ कहा—
“अनाज मंडी में काम मिला था, ट्रक लोड करने का। और उन्होंने अगले दस दिनों के लिए भी रख लिया है। अब पैसों का इंतज़ाम हो जाएगा। चिंता मत करो नैया, अभी तो हमारे पास पूरा एक महीना है।”
नैया की आँखों में चमक आ गई। वह जानती थी कि उसके पति के इरादे पत्थर जैसे अडिग हैं।
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दस दिनों की मेहनत
अगले दस दिन बालू हर रोज़ मंडी जाता। सुबह से शाम तक बोरे ढोता। शरीर दर्द से चूर हो जाता, मगर दिल को सुकून था कि वह अपने बेटे की पढ़ाई के लिए लड़ रहा है।
दस दिनों में कुछ पैसे इकट्ठा हो गए। मगर फीस पूरी करने के लिए और चाहिए थे।
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ईंट-भट्टे का सफ़र
अगले ही दिन वह फिर काम की तलाश में निकल पड़ा। इस बार उसके कदम ईंट-भट्टे की ओर बढ़े। वहाँ उसे ट्रैक्टर में ईंट लादने का काम मिला।
ईंटें बोरे से कहीं ज्यादा भारी थीं। धूल मिट्टी से लथपथ होते हुए, धूप की तपिश झेलते हुए, बारह-बारह घंटे तक उसने काम किया। उसके हाथ छिल गए, कंधे सुन्न हो गए, पर आँखों में केवल अशोक का चेहरा तैरता रहा।
बारह दिनों की इस कठिन मेहनत के बाद उसके पास आखिरकार उतने पैसे हो गए कि वह स्कूल की फीस भर सके।
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बोझ हल्का हुआ
जिस दिन उसने फीस जमा की, उस दिन उसके दिल से जैसे कोई बड़ा पत्थर हट गया। वह मंदिर के द्वार पर जाकर हाथ जोड़कर बोला—
“हे भगवान! तूने मुझे हिम्मत दी। मेरा बच्चा पढ़ेगा, आगे बढ़ेगा। यही मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी जीत है।”
नैया की आँखों से आँसू बह निकले। मगर वे आँसू दुख के नहीं थे, गर्व और संतोष के थे।
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भावनात्मक सत्य
वास्तव में बालू की यह हिम्मत ही उसकी सबसे बड़ी ताकत थी। आम इंसान परिस्थितियों से डरकर पीछे हट जाता है, मगर बालू ने हालातों से टकराने का फैसला किया। उसकी कहानी इस सच्चाई को दर्शाती है कि—
जिसके अपने पेट में भूख हो, और फिर भी वह अपने बच्चे के भविष्य के लिए लड़ता हो—वह इंसान वास्तव में असली नायक है।
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भावपूर्ण पंक्तियाँ
> “लाख चाहतें की थीं, हालातों ने उसे हराने की,
हर बार डर दिखाकर कोशिश की गिराने की।
मगर हालातों से डरकर वो पीछे कभी हटा नहीं,
उसके दिल में उमंग थी—इतिहास को दोहराने की।”
नए सपनों की शुरुआत
अब बालू के सामने केवल थकान नहीं थी, बल्कि नई उम्मीदें थीं। उसने सोचना शुरू कर दिया था कि अशोक को कितनी दूर तक पढ़ाएगा, किस ऊँचाई पर देखेगा।
यह उसकी हिम्मत का परिचायक था। क्योंकि जो व्यक्ति अपने वर्तमान की ठोस ज़मीन पर भी खड़ा न हो, और फिर भी अपने बच्चे के भविष्य की इमारत बनाने का सपना देखे—उससे बड़ा साहसी कौन हो सकता है?
उसकी हथेलियाँ छिली थीं, कंधे बोझ से झुके थे,
मगर आँखों में सपनों के दीपक अब भी जले थे।
रात का अंधेरा जितना गहरा होता गया,
उसकी उम्मीद का दिया उतना ही उजियारा होता गया।
जिसे अपनी थाली में रोटी का भरोसा न था,
वही अपने बेटे के लिए भविष्य के सपने बुन रहा था।
हालात लाख गरजे, किस्मत लाख रूठी,
पर उसने ठान लिया—“अशोक की पढ़ाई कभी न छूटेगी।”
ये कहानी किसी एक बालू की नहीं,
ये हर उस पिता की दास्तान है
जो अपनी भूख भुलाकर
अपने बच्चे की मुस्कान के लिए लड़ता है।
समय का पहिया घूमता गया।
दिन से हफ़्ते बने, हफ़्तों से महीने और फिर साल… और इन चार वर्षों में बालू ने अपने शरीर की एक-एक नस निचोड़ कर, पसीने की हर बूँद बहाकर अशोक की पढ़ाई के रास्ते में आने वाली हर बाधा को मिटा दिया।
मगर नियति!
नियति तो अक्सर सबसे कठिन इम्तहान तब देती है जब इंसान सबसे अधिक टूट चुका होता है।
चार साल बीतते-बीतते एक ऐसा दिन आ ही गया जब बालू के पास पैसों का कोई भी जरिया न बचा। उसकी जेब खाली थी, हाथ खाली थे, और किस्मत जैसे उसके खिलाफ कोई षड्यंत्र रच रही थी।
उस दिन स्कूल से संदेश आया—
“फीस जमा न होने पर अशोक का नाम काट दिया गया है।”
यह सुनकर जैसे बालू की पूरी दुनिया ढह गई।
उसकी आँखें डबडबा आईं, दिल काँप गया और सीना बोझ से दब गया।
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पिता का टूटना
“अब जी कर भी क्या फायदा…?”
बालू अपने दोनों हाथ सिर पर रखकर फूट-फूट कर रो पड़ा।
उसकी आँखों से आँसू किसी झरने की तरह बह रहे थे।
वो बार-बार नैया से कह रहा था—
“हम अपने बच्चे को पढ़ा तक न सके… हमसे बड़ा निकम्मा इस दुनिया में कौन होगा… जान देने का मन कर रहा है नैया, जान देने का…”
उसकी आवाज़ इतनी दबी और टूटी हुई थी कि सुनकर पत्थर भी पिघल जाए।
नैया का दिल कांप उठा। वह बालू के कंधे पर हाथ रखती है, अपने आँसुओं को छुपाते हुए धीमे स्वर में बोली—
“अरे, तुम निराश काहे होत हो? तुम्हरे जान देवे से अशोक की फीस भर जाएगी का? तुम्हारी हार देख अशोक की आँखों का सपना बुझ जाएगा। ऐसे फालतू बात मत किया करो… हमार दिल तोड़ देते हो।”
उसकी आँखों में भी आँसू थे, मगर उसने उन्हें छुपा लिया। क्योंकि वह जानती थी कि अगर दोनों टूट गए, तो अशोक का भविष्य अंधकार में डूब जाएगा।
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पिता का छल
कुछ देर तक चुप रहने के बाद बालू बोला—
“नैया, तुम अशोक को लेकर मायके चली जाओ।
उस मासूम को ये पता न लगने देना कि फीस न भर पाने के कारण उसे स्कूल से निकाल दिया गया है।
उससे कह देना—‘स्कूल में छुट्टी लग गई है, इसलिए नानी के घर घूमने जाना है।’
मैं तब तक किसी भी तरह पैसों का इंतजाम कर लूँगा… चाहे अपनी जान भी देनी पड़े।”
नैया ने आँसुओं को दबाते हुए सहमति में सिर हिला दिया।
“ठीक है, हम अशोक को मायके ले जात हैं… तुम जल्दी से जल्दी फीस का इंतजाम कइयो।”
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मासूम का सवाल
बालू ने काँपते स्वर में अशोक को पुकारा—
“अशोक… बेटा, कहां हो? ज़रा इधर आओ…”
अशोक दौड़ता हुआ आया और पिता की गोद में बैठ गया।
उसकी आँखों में चमक थी, चेहरे पर मासूमियत और होठों पर हंसी।
“क्या बात है, पिताजी? हमें बुलाया क्यों?”
उसने भोलेपन से पूछा।
बालू ने अपने आंसुओं को छुपाते हुए, दिल पर पत्थर रखकर मुस्कुराने की कोशिश की।
“बेटा, तुम्हारे टीचर आए थे। उन्होंने कहा है कि स्कूल में कुछ दिनों की छुट्टी लग गई है।
इसलिए तुम्हारी अम्मा तुम्हें नानी के घर घुमाने ले जाएँगी।”
अशोक की आँखें खुशी से चमक उठीं।
“सच में छुट्टी लग गई है पिताजी? अच्छा तो मैं अपनी किताबें भी बैग में रख लूँगा। नानी के घर पर भी होमवर्क कर लूँगा।”
यह सुनकर बालू का दिल चीर गया।
वो अपने आँसुओं को रोक न सका और बाहर जाकर फूट-फूट कर रो पड़ा।
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विदाई
कुछ देर बाद, भारी मन से, बालू नैया और अशोक दोनों को नैया के मायके छोड़ आया।
रास्ते भर उसका दिल काँपता रहा—
हर कदम जैसे कह रहा था,
“ये झूठ कब तक चलेगा? अशोक को जब सच्चाई पता चलेगी, उसका मासूम दिल कैसे टूटेगा?”
वापस लौटते समय उसकी आँखों से आँसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे।
घर की दहलीज़ पर कदम रखते ही उसे ऐसा लगा जैसे पूरा आँगन सूना हो गया हो।
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भावनात्मक समापन
उस रात, अकेले अलाव के सामने बैठकर बालू के होंठों से सिर्फ़ यही शब्द निकले—
> “हे भगवान, अगर तू सचमुच है तो मेरी साँसें ले ले,
मगर मेरे बच्चे के सपनों को मत छीन।”
कंधों पे दुनिया का बोझ उठाए,
पाँवों में छाले, दिल में हवाले,
खुद भूखा रहकर भी जिसने
बेटे के सपनों को रोटी बना डाला।
पर नियति की मार ऐसी पड़ी,
कि चार बरस की तपस्या ढह गई,
फीस की चंद काग़ज़ी पर्चियों ने
उसके अरमानों की चिता सजा दी।
झूठ बोलकर भी जिसने बेटे की हँसी बचा ली,
वही पिता रात के अंधेरे में टूटा पड़ा था,
क्योंकि उसे पता था—
“सपनों का महल मिट्टी का होता है,
अगर नींव में ग़रीबी हो।”
और उसकी आँखों से आँसू फिर उसी तरह बहे जैसे किसी प्यासे खेत पर पहली बरसात की बूँदें गिरती हैं…
अशोक के जीवन में मानो एक नया मोड़ आ गया था।
जहाँ एक ओर पढ़ाई की गाड़ी अचानक पटरी से उतर चुकी थी, वहीं दूसरी ओर ननिहाल की यह दुनिया उसके लिए बिल्कुल नई थी।
गाँव की खुली गलियाँ, आम के पेड़ों की छाँव, और मोहल्ले के बच्चों का साथ—धीरे-धीरे अशोक ने भी इस नए माहौल को अपना लिया।
दिन ढलते ही जब मोहल्ले के सभी बच्चे गलियों में खेलते, अशोक भी उनमें शामिल हो जाता।
उसके हँसते-खेलते दिन देखकर कोई सोच भी नहीं सकता था कि यह वही बच्चा है जिसे हाल ही में पढ़ाई से वंचित कर दिया गया था।
परंतु सच यही था कि जिस घर में कोई पढ़ा-लिखा न हो, वहाँ किताबों की जगह खेल-खिलौनों और बातों का संसार ही हावी हो जाता है।
इसी कारण अशोक की पढ़ाई धीरे-धीरे जैसे ठहर-सी गई थी।
अशोक के ननिहाल में चार सदस्य थे—नाना, नानी और मामा- मामी।
मामा नीतेश रोज़ साइकिल पर निकलते, गली-गली मिस्री बेचते, और अपनी मेहनत से घर का खर्चा चलाते।
उन्हें इस बात का आभास तक नहीं था कि उनकी आँखों के सामने खेलता यह बालक दरअसल अपनी किताबों से इसलिए दूर हो गया था क्योंकि उसके पिता पैसों का इंतजाम न कर पाए थे।
नैया ने अपने पिता और भाई को कुछ भी नहीं बताया।
वह जानती थी कि अगर सच बाहर आ गया तो बालू के स्वाभिमान को ठेस पहुँचेगी—और यही कारण था कि यह राज उसके दिल में दफन रहा।
वहीं दूसरी ओर, बालू अपने वचन की रक्षा में दिन-रात खप रहा था।
उसके लिए अब खाने-पीने, सोने-जागने का कोई महत्व नहीं था।
एक ही धुन थी—“अशोक की पढ़ाई फिर से शुरू होनी चाहिए।”
उसकी आँखों में नींद कम और बेटे के भविष्य की चिंता अधिक थी।
आख़िरकार, कई रातों की जागरण और अनगिनत कामों की मशक्कत के बाद, बालू फीस का पैसा जुटा ही लाया।
उस दिन उसके चेहरे पर वह संतोष झलक रहा था जो एक पिता के संघर्ष की जीत का प्रतीक होता है।
नैया और अशोक को ननिहाल से लेने के बाद उसने गर्व से कहा—
“अब मेरा बेटा फिर से स्कूल जाएगा।”
पूरे एक महीने के बाद अशोक ने स्कूल की यूनिफॉर्म पहनी।
आईने के सामने खड़ा होकर वह मुस्कुराया—“अम्मा, अब तो मैं बड़ा हो गया हूँ। मुझे अकेले ही स्कूल जाने दो, तुम रोज़-रोज़ छोड़ने मत आना।”
नैया ने मुस्कुराकर उसके गालों को सहलाया और बोली—“पुत्र चाहे जितना बड़ा हो जाए, माँ की नज़रों में तो हमेशा बच्चा ही रहता है।”
और वह अपने हाथों से बेटे का बैग उठाकर, उसका हाथ थामे, उसे स्कूल छोड़ने निकल गई।
जब अशोक लंबे समय बाद कक्षा में पहुँचा तो सभी शिक्षक उसकी ओर देखने लगे।
“अशोक, इतने दिनों कहाँ थे?”—प्रश्नों की बौछार हुई।
उस मासूम चेहरे ने वही उत्तर दिया, जो उसके पिता ने उसे बताया था—
“हमारे स्कूल में छुट्टी थी, सर।”
शिक्षकों की आँखों में संशय था, वे भली-भाँति समझ गए कि सच कुछ और है।
धीरे-धीरे बातचीत के बाद सच्चाई सबके सामने आई कि फीस न भर पाने के कारण यह होनहार बच्चा स्कूल से दूर था।
शिक्षकों ने कोई डाँट नहीं लगाई, बल्कि उनके हृदय में अशोक के लिए और भी ममता उमड़ आई।
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काव्यांत
दोषी न था वो,
बस हालातों का शिकार था।
सपनों की किताब बंद हुई,
तो भी आँखों का उजाला बरकरार था।
नादान था, पर ग़लत न था,
बस समय से अनजान था।
जिस पिता ने लहू पसीना एक कर दिया,
वो बेटा भी अब समझदार था।
और फिर इसी तरह दिन बीतते चले गए…।
परिवार की तंगी और बालू के संघर्षों का असर अब अशोक की मासूम आँखों तक पहुँच चुका था। किताबों में डूबे रहने वाला बच्चा अब बार-बार अपने पिता को घूरता, जैसे हर आहट में उनके दुख पढ़ लेना चाहता हो।
धीरे-धीरे अशोक का मन पढ़ाई से उचटने लगा। अब उसे लगता कि किताबों की दुनिया से ज़्यादा ज़रूरी वह दुनिया है, जिसमें उसका पिता पसीना बहाकर उनकी जिंदगी चला रहा है। पिता की झुर्रियों में दर्द और माँ की आँखों में चिंता देखकर उसका मन क्लासरूम से ज़्यादा दिहाड़ी के मैदान में जाने को करने लगा।
एक दिन न जाने कहाँ से हिम्मत बटोरकर अशोक ने अपनी माँ से कह दिया—
“अम्मा… अब हम स्कूल नहीं जाएंगे। पढ़ने-लिखने का मन नहीं करता। और वैसे भी अब तक बहुत पढ़ चुके। अब हम कुछ काम करेंगे।”
मात्र 15 वर्ष की उम्र में यथार्थ से टकराने वाला वह बच्चा अपनी बात कहकर बाहर चला गया। वह बाजार से कुछ सामान लेने निकला, लेकिन उसकी आवाज़ में छुपा दर्द नैया के दिल को चीर गया।
नैया जानती थी—अशोक यह निर्णय अपनी पढ़ाई से ऊबकर नहीं ले रहा, बल्कि अपने पिता का बोझ हल्का करने के लिए ले रहा है। उसकी आँखों में अपने पिता के लिए जो प्रेम और करुणा थी, वही उसे विवश कर रही थी। माँ का हृदय टूटा भी और पिघला भी—दुख इस बात का कि उसका बेटा पढ़ाई छोड़ देना चाहता है, और गर्व इस बात का कि वह पिता के संघर्ष को समझ चुका है।
उस रात जब थका-हारा बालू दिहाड़ी से घर लौटा तो नैया ने धीरे से पानी बढ़ाते हुए कहा—
“अशोक आजकल बहुत उदास रहता है। आज तो कह रहा था कि अब उ स्कूल नहीं जाएगा… कहता है उसका पढ़ने-लिखने में मन नहीं लगता, अब वह कुछ काम करना चाहता है।”
बालू ने पानी का गिलास होंठों तक तो पहुँचाया, पर पी न सका। उसकी रगों में जैसे बर्फ दौड़ गई हो। बेचैनी से वह अशोक का इंतज़ार करने लगा।
कुछ ही देर में अशोक सामान लेकर लौट आया। पिता के पास बैठते ही उसकी नज़रें झुक गईं। बालू ने उसका चेहरा थामते हुए पूछा—
“क्या हुआ बेटा? तुम स्कूल क्यों नहीं जाना चाहते? तुम तो पढ़ाई में बहुत होशियार हो… फिर अचानक ये फैसला क्यों?”
अशोक बहुत कोशिश करता रहा कि उसके होंठ न कांपें, आँखें न भीगें। मगर ज्वार को कौन रोक पाया है! वह फूट-फूटकर पिता के सीने से लग गया और रोते हुए बोला—
“बाबूजी… अब हम आपको यूँ परेशान होते नहीं देख सकते। कल जब आपने अपनी दिहाड़ी माँगी और मालिक ने आपको अपशब्द कहे… तब हमसे सहा न गया। ये सब मेरे कारण है… मेरी पढ़ाई के कारण आप कितने दुख झेलते आ रहे हो और कभी माथे पर शिकन तक न आने दी। बाबूजी, अब हमारा पढ़ाई में मन लगना असंभव है। व्यर्थ स्कूल जाने से अच्छा है कि अब हम भी कुछ काम करें।”
बालू का हृदय चीर गया। उसके सपनों की सारी बुनावट जैसे टूटकर बिखर रही थी। वह काँपते स्वर में मगर कठोर लहजे में बोला—
“देखो बेटा! अभी तुम्हारी उम्र इन बेवजह की बातों की नहीं है। तुम्हें स्कूल जाना ही होगा। अगर तुम पढ़-लिख लोगे तो वह जीवन नहीं जीना पड़ेगा, जो मैं जी रहा हूँ। इसलिए सुबह से ही तुम बिना बहाना किए स्कूल जाओगे… बस!”
कहकर बालू ने गहरी साँस भरी और खामोश हो गया।
वहीं अशोक अपने आँसू पोंछते हुए सोच में डूब गया—कि आखिर उसकी नियति उसे कहाँ ले जाएगी।
असमंजस में पड़ गया था वो
जाने कैसी अजब घड़ी थी
टकराना पड़ेगा जिससे उसे
चट्टान उसके समक्ष खड़ी थी
एक नई सुबह की हल्की धूप खिड़की से झाँक रही थी।
बीती रात का बोझ अभी भी अशोक के मन पर था, पर पिता का आदेश उसके लिए सबसे बड़ा था। इसलिए वह चुपचाप तैयार होने लगा।
“अम्मा, मैं जा रहा हूँ। टिफ़िन भी रख लिया है।” — यह कहकर अशोक धीरे-धीरे कदमों से स्कूल की ओर निकल पड़ा।
रास्ते में उसका मित्र मयूर मिला।
“अरे अशोक, तू इतना उदास क्यों लग रहा है?” — मयूर ने पूछा।
“कुछ नहीं यार, बस ऐसे ही… पर तू इतने दिन से स्कूल क्यों नहीं आ रहा था?” — अशोक ने प्रश्न किया।
मयूर ने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया—“घर में सब बीमार हो गए थे… और मैं भी। इसलिए आ नहीं पाया।”
अशोक की आँखों में चिंता उतर आई, लेकिन उसी समय घंटी बजी और दोनों अपनी-अपनी क्लास में पहुँच गए।
कक्षा में पहुँचते ही शिक्षक ने मयूर से पूछा—“इतने दिन कहाँ थे बेटा?”
मयूर ने झिझकते हुए बीमारी का कारण बता दिया।
शिक्षक ने बच्चों को बरसात में होने वाली बीमारियों और मच्छरों से फैलने वाले खतरों के बारे में विस्तार से समझाया।
“बच्चों, अगर मोहल्ले में पानी इकट्ठा होगा, तो उसमें मच्छर पनपेंगे और फिर बीमारी फैलाएँगे। इसलिए अपने घर और बस्ती को साफ़ रखना बहुत ज़रूरी है।”
बच्चे ध्यान से सुनते रहे। अशोक के मन में शिक्षक की बातें गहराई से बैठ गईं।
स्कूल की छुट्टी के बाद जब अशोक और मयूर साथ-साथ घर लौट रहे थे, तभी बस्ती में इकट्ठे हुए गंदे पानी पर नज़र पड़ी।
अशोक ने रुककर कहा—“देख, यही पानी हमारी बस्ती में बीमारियाँ फैला सकता है। क्यों न हम इसे साफ करें? कल छुट्टी है, सब मिलकर करेंगे।”
मयूर ने उत्साह से हामी भरते हुए कहा—“हाँ, और बाकी बच्चों को भी साथ लेते हैं।”
शाम को जब बस्ती के सारे बच्चे खेलने के लिए एकत्र हुए, तो अशोक ने उन्हें अपने शिक्षक की कही बातें पूरे जोश और समझदारी से समझाईं। उसकी बातों में इतनी सच्चाई थी कि हर बच्चा तैयार हो गया।
अशोक ने योजना बनाई और सबको काम बाँट दिए—
किसे नाली खोदनी है, किसे गड्ढे भरने हैं, किसे कचरा हटाना है। बच्चे खुशी-खुशी अपने-अपने काम पर तैयार हो गए।
अगले दिन सुबह-सुबह बस्ती में मानो क्रांति का दृश्य था। छोटे-छोटे हाथों में फावड़े, टोकरी और डंडे थे। सब मिलकर काम करने लगे।
नाली बनाते हुए पानी की निकासी की गई, सड़कों के गड्ढे मिट्टी से भर दिए गए, जमा गंदगी हटा दी गई।
दोपहर तक पूरी बस्ती की शक्ल ही बदल गई। गंदगी के बीच जो जगह उजड़ी-उजड़ी लगती थी, वह अब साफ-सुथरी और ताज़ा दिखाई देने लगी।
यह दृश्य देखकर बस्ती के लोग दंग रह गए। बच्चों के छोटे हाथों से हुआ यह बड़ा काम सिर्फ़ बस्ती के लिए नहीं, बल्कि आसपास के इलाकों के लिए भी मिसाल बन गया।
देखते ही देखते अशोक और लगभग एक हज़ार बच्चों के इस काम की चर्चा चारों ओर फैल गई।
बस्ती के बुज़ुर्ग और सम्मानित लोग बच्चों की टोली का हौसला बढ़ाने के लिए आए और उनका सम्मान किया। कुछ लोग तो सीधे अशोक के घर पहुँचकर नैया और बालू से कहने लगे—
“आपका बेटा सचमुच बहुत बड़ा काम कर गया है। इतनी छोटी उम्र में ऐसी समझ और ऐसी पहल… यह बच्चा आगे चलकर हमारे गाँव का नाम रोशन करेगा।”
नैया और बालू की आँखों में गर्व छलक आया। दोनों ने अशोक को गले से लगा लिया।
अशोक के लिए यह उसकी मंज़िल की ओर चढ़ी पहली सीढ़ी थी—जिसने उसके जीवन की राह तय कर दी।
उम्र छोटी सी पर काम बड़ा था
मशाल बन अंधेरों से लड़ा था
जनता की खुशियों की खातिर
जनहित में वो हो गया खड़ा था
अशोक के जीवन में उतार-चढ़ाव मानो उसके साथी बन चुके थे।
हर बार परिस्थितियाँ चाहे कितनी भी कठिन क्यों न हुई हों, वह अपने को ढालना सीख गया था।
अब वह खुद को एक नई दिशा में मोड़ चुका था। बस्ती की छोटी-मोटी समस्याओं का समाधान करना उसकी आदत बन गई थी।
लोग धीरे-धीरे उसे सिर्फ़ एक बच्चे की नज़र से नहीं, बल्कि एक जिम्मेदार इंसान की तरह देखने लगे थे।
बस्ती के बड़े-बुज़ुर्ग भी उसकी इज्ज़त करने लगे थे।
लेकिन घर की हालत उसके मन को तोड़ देती थी।
अशोक सोचता—“परिवार की स्थिति देखते हुए मुझे भी कुछ करना ही होगा।”
इसी सोच ने उसे कई छोटे-मोटे काम करने पर मजबूर कर दिया।
वह कभी होटल में काम करता, कभी किसी दुकान पर, तो कभी मज़दूरी।
पर हर जगह उसे बस जिल्लत और अपमान ही हाथ लगे।
उधर काम का बोझ बढ़ता गया और उसकी पढ़ाई छूटती गई।
आख़िरकार उसने स्कूल जाना ही छोड़ दिया।
बालू ने लाख समझाया—“बेटा, पढ़ाई छोड़ मत, इससे ही जीवन बदलता है।”
पर अशोक की ज़िद उसकी मजबूरी थी।
बालू के सपने टूटते जा रहे थे, और उसके मन में डर बैठ गया था—
“कहीं अशोक भी बस्ती के बिगड़े बच्चों की तरह न भटक जाए।”
विडंबना देखिए—
पिता बेटे के भविष्य के लिए पढ़ाई चाहता था,
और बेटा पिता के वर्तमान को सँवारने के लिए काम करना चाहता था।
सर्दी की धूप में बालू चुपचाप बैठे गहरे सोच में डूबे थे।
नैया ने आकर पूछा—“का हुआ? का सोचत हो?”
बालू ने चिंतित स्वर में कहा—“हमका अशोक की फिक्र होत है। पढ़ाई छोड़े डाली है, काम की तलाश में भटक रहा है, कहीं खाली बैठकर बिगड़े लड़कों की संगत में न पड़ जाए… यही चिंता सतावत है।”
नैया ने उनके कंधे पर हाथ रखते हुए धीरे से कहा—
“तुम बेवजह की चिन्ता करत हो। हमका अशोक पर पूरा भरोसा है। वो मेहनत से कोई न कोई अच्छा काम ज़रूर तलाश लेगा।”
उधर अशोक सचमुच नए काम की तलाश में भटक रहा था।
हर बार कोशिश करता, और हर बार असफलता उसके हिस्से आती।
उसके मन का उत्साह टूटने लगा था।
एक शाम, वह अपने दोस्त मयूर के साथ पब्लिक पार्क में बैठा इन्हीं बातों पर चर्चा कर रहा था।
पास ही एक व्यक्ति उनकी बातें ध्यान से सुन रहा था—वह था इलाके का मशहूर व्यापारी, विनय।
विनय पहले से अशोक के बारे में सुन चुका था।
उसे याद था कि किस तरह अशोक ने अपने साथियों को लेकर पूरी बस्ती को साफ़ करवाया था।
उसके मन में अशोक के लिए सम्मान था।
वह पास आकर मुस्कुराया और बोला—
“देखो अशोक, मैंने तुम्हारी बातें सुनीं। तुम काम की तलाश में हो। मैं तुम्हें एक जिम्मेदारी वाला काम देना चाहता हूँ। और मुझे पूरा भरोसा है कि तुम इसे कर सकोगे।”
अशोक थोड़ा चौंक गया।
“पर साहब, आप हैं कौन? मैं आपको जानता भी नहीं, फिर आप मुझे क्यों काम दे रहे हो?”
विनय ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया—
“मैं तुम्हारी बस्ती के पास वाली कॉलोनी में रहता हूँ।
वो जो पीले रंग का घर है, जिसके सामने तुम और बाकी बच्चे मिलकर सड़क पर गड्ढे भर रहे थे…
वो मेरा ही घर है।
और हाँ, मैं एक व्यापारी हूँ।
मैंने उस दिन तुम्हारा काम देखा था। तुम्हारी लगन और समझदारी ने मुझे बहुत प्रभावित किया।
इसलिए मैं तुम्हें एक बड़ा काम देना चाहता हूँ।
कल सुबह मेरे घर आना, मैं सब समझा दूँगा।”
यह कहकर विनय वहाँ से चला गया।
अशोक और मयूर दोनों हैरान रह गए।
उनके मन में सवालों की बौछार थी—
“आख़िर कैसा काम होगा?
क्या सचमुच व्यापारी हम पर भरोसा कर रहा है?”
राह में अब जाने कैसा
नया मोड़ आने वाला था
दिल में उसके बस अब
जिज्ञासा का बोलबाला था
इंतजार था उसे तो बस
अब आने वाली भोर का
दिल में थी बैचेनी उसके
आँखों में एक उजाला था
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उस रात अशोक करवटें बदलता रहा।
मन ही मन सोचता—“क्या मुझे उसकी बात माननी चाहिए? या इसे भूल जाना ही ठीक होगा?”
पर जवाब उसे नहीं मिला।
और यूँ ही सोचते-सोचते उसने पूरी रात आँखों-आँखों में काट दी।
सुबह की हल्की किरणें जैसे ही धरती पर बिखरने लगीं, बस्ती की टेढ़ी-मेढ़ी गलियों में भी एक नई चमक उतर आई।
कोहरे से ढकी हवा अब धीरे-धीरे साफ़ हो रही थी और पंछियों की चहचहाहट उस सन्नाटे को तोड़ रही थी, जो सारी रात बस्ती पर छाया रहा था।
अशोक चारपाई पर बैठे-बैठे ही सूरज के उगते रंगों को निहार रहा था।
मन में अजीब-सी बेचैनी थी—विनय से मिलने का उत्साह भी और थोड़ी-सी दुविधा भी।
उसे याद था, कल रात नींद उसकी आँखों से कोसों दूर रही थी।
वह बार-बार यही सोचता रहा कि आखिर व्यापारी विनय उसे किस काम के लिए बुला रहा है।
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नैया और अशोक का संवाद
इन्हीं विचारों में डूबे अशोक के पास नैया आई।
उसके हाथ में पीतल का गिलास था जिसमें ताज़ा उबला हुआ दूध भरा था।
ममता से भरी आँखों से उसने बेटे की ओर देखा और बोली—
“काहे रे, रात भर जागे रहे का? आँखें तो लाल होत हैं।”
अशोक हल्की मुस्कान के साथ बोला—
“अम्मा, हाँ… कुछ सोच रहा था। आज विनय जी ने बुलाया है। कहते हैं, बस्ती के लिए कोई काम है। सोच रहा हूँ, जाने से पहले तुमसे सलाह ले लूँ।”
नैया ने दूध का गिलास उसके हाथ में थमाया और पास ही बैठ गई।
उसके चेहरे पर चिंता की हल्की लकीरें खिंच आईं।
“देखो बेटा,” नैया धीरे-धीरे बोली,
“काम बड़ा हो या छोटा, सही और गलत का फ़र्क़ हमेशा याद रखियो।
पैसा हर काम में मिलेगा, पर इज्ज़त और दुआएँ सिर्फ़ नेक काम में मिलत हैं।
अगर विनय का काम नेक है तो पूरा जी-जान लगाकर करना, लेकिन अगर तनिक भी गलत लगे तो तुरंत मना कर देना।”
अशोक ने सिर झुकाकर कहा—
“अम्मा, तुम्हारी बात हमेशा मेरे लिए सच होती है। मैं वादा करता हूँ कि तुम्हें कभी शर्मिंदा नहीं करूँगा।”
नैया की आँखों में पानी छलक आया, पर चेहरे पर संतोष भी था।
उसने बेटे के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा—
“जा, भगवान तेरा भला करे। जा के सुन विनय का कहना, फिर सोच-समझकर ही आगे बढ़ियो।”
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व्यापारी से मुलाक़ात
अशोक अब मन ही मन मजबूत होकर विनय से मिलने निकला।
सर्द हवाएँ उसके चेहरे से टकरा रही थीं, लेकिन उसके कदम तेज़ और दृढ़ थे।
बस्ती की गलियाँ पार करते हुए वह उस बड़े मकान तक पहुँचा जहाँ व्यापारी विनय रहता था।
दरवाज़े पर दस्तक देते ही भीतर से विनय की आवाज़ आई—
“आओ अशोक, मैं तुम्हारा इंतजार ही कर रहा था।”
अंदर पहुँचकर अशोक को बड़े आराम से बिठाया गया।
गर्म चाय की प्याली उसके सामने रखी गई।
विनय ने मुस्कराते हुए कहा—
“अशोक, मैंने शासन से अनुमति ली है कि इस बस्ती के पास की तीन एकड़ सरकारी भूमि पर एक ट्रस्ट का स्कूल बनाऊँ।
मेरा सपना है कि इस बस्ती का कोई भी बच्चा शिक्षा से वंचित न रहे।
लेकिन एक बड़ी समस्या है—वह पूरी ज़मीन कचरे और गंदगी से पटी हुई है।
जब तक वह साफ़ नहीं होगी, वहाँ स्कूल की नींव रखना असंभव है।”
अशोक ध्यान से सुन रहा था।
विनय ने आगे कहा—
“मैंने सोचा, यह काम तुम्हें ही सौंप दूँ।
बस्ती के लोग तुम्हारी इज़्ज़त करते हैं, बच्चे तुम्हारी बात मानते हैं।
अगर तुम उन्हें समझाओगे तो वे ज़रूर मानेंगे।
तुम्हें यह जिम्मेदारी उठानी होगी कि कोई भी उस ज़मीन पर कचरा न डाले और सबको सफाई के लिए गढ्ढों का इस्तेमाल करने के लिए प्रेरित करो।”
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अशोक का संकल्प
अशोक ने गहरी साँस ली और फिर विनय की आँखों में देखते हुए बोला—
“विनय जी, यह सिर्फ़ सफाई का काम नहीं है। यह हमारी बस्ती के बच्चों के भविष्य का सवाल है।
अगर हम यह जगह साफ़ कर पाए तो यहाँ से एक नई पीढ़ी पढ़-लिखकर आगे बढ़ सकेगी।
मैं वचन देता हूँ, इस काम को अधूरा नहीं छोड़ूँगा। चाहे कितनी भी मेहनत करनी पड़े।”
विनय संतोष से मुस्कुराया और बोला—
“मुझे पता था, अशोक, तुम ही यह जिम्मेदारी उठा सकते हो। तुम चाहो तो अपने मित्रों और बच्चों को भी साथ जोड़ लो।
यह काम आसान नहीं होगा, पर तुम्हारे नेतृत्व से सब सम्भव है।”
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बस्ती में अभियान की शुरुआत
उस दिन जब अशोक घर लौटा, तो उसने नैया को सब बातें बताईं।
नैया ने उसकी आँखों में चमक देखी और बोली—
“बेटा, यह तो सचमुच पुण्य का काम है। जा, पूरी ताक़त से इसे कर।
याद रखियो, साफ़ जगह पर ही ज्ञान का मंदिर खड़ा हो सकता है।”
अगले ही दिन से अशोक ने बच्चों की टोली बनाई।
बस्ती के कोनों से छोटे-छोटे बच्चे उत्साह से उसके साथ जुड़ गए।
किसी ने टोकरी उठाई, किसी ने झाड़ू, किसी ने फावड़ा।
सभी के चेहरों पर एक ही जिद थी—“हम अपनी ज़मीन को साफ़ करेंगे।”
अशोक टोली लेकर हर घर गया।
वह FOLDED हाथों से सबको समझाता—
“अम्मा, अब इस ज़मीन पर कचरा मत डालना। वहाँ हमारे बच्चों का स्कूल बनेगा।
कृपया कचरा सिर्फ़ गढ्ढों में ही डालो।”
कुछ लोग मुस्कराकर मान गए।
कुछ ने टाल दिया—
“अरे अशोक, ये सब आसान नहीं। कचरा तो यहीं पड़ेगा।”
पर अशोक हार मानने वाला नहीं था।
वह हर बार धैर्य से समझाता,
बच्चे भी मिलकर कहते—
“अब वहाँ स्कूल बनेगा, हम सब मिलकर जगह साफ़ करेंगे।”
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परिवर्तन की शुरुआत
धीरे-धीरे लोगों का मन पिघलने लगा।
महिलाएँ अपने घर का कचरा अलग-अलग टोकरी में रखने लगीं।
युवक सफाई के काम में जुट गए।
और बच्चे मिट्टी उठाकर ज़मीन को समतल करने लगे।
कभी बदबू और गंदगी से घिरी ज़मीन अब धीरे-धीरे साफ़ होने लगी।
लोग आश्चर्य से कहते—
“क्या यह वही जगह है जहाँ कल तक ढेर-ढेर कचरा था? अब तो सचमुच स्कूल बन सकता है।”
अशोक की मेहनत देखकर बुज़ुर्ग कहते—
“बेटा, तूने हमारे बच्चों का भविष्य सँवार दिया। भगवान तुझे खूब आगे बढ़ाए।”
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समापन
उस शाम जब सूर्य अस्त हो रहा था,
उसकी सुनहरी किरणें उस साफ़ मैदान पर बिखरीं।
अशोक खड़ा होकर देख रहा था—
जगह अब पहले जैसी नहीं थी।
उसमें एक नई उम्मीद उग आई थी।
उसकी आँखों में आँसू थे, पर दिल में गहरा संतोष।
वह जानता था, यह बस शुरुआत है।
कल इसी धरती पर ज्ञान का दीपक जलेगा और उसकी बस्ती रोशनी से भर जाएगी।
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“गंदगी से जूझते हाथों ने अब भविष्य की नींव रखी थी।
जहाँ कभी कचरा बदबू बनकर बस्ती को ढँक देता था,
वहीं अब बच्चों की हँसी और किताबों की खनक गूँजने वाली थी।”
संकल्प दृश्य
सूरज की अंतिम किरणें जैसे ही धरती से विदा ले रही थीं,
अशोक ने बच्चों को उस साफ़ की गई ज़मीन पर इकट्ठा किया।
बुज़ुर्ग और औरतें भी वहाँ खड़े होकर देख रही थीं।
हवा में अब बदबू नहीं थी, बल्कि एक नई ताज़गी घुल गई थी।
अशोक ने मिट्टी पर खड़े होकर सबको पुकारा—
“भाइयो-बहनो, और मेरे छोटे साथियो!
आज हमने अपनी बस्ती की धरती से कचरा हटाया है।
पर असली काम अब शुरू हुआ है।
यह जगह सिर्फ़ ज़मीन नहीं है—यह हमारे बच्चों के भविष्य की नींव है।
यहाँ स्कूल बनेगा, यहाँ ज्ञान का दीप जलेगा।
तो बोलो, क्या तुम सब वादा करते हो कि अब कोई भी इस ज़मीन पर कचरा नहीं डालेगा?”
भीड़ से एक स्वर गूँजा—
“हाँ… हम सब वादा करते हैं!”
बच्चे अपनी छोटी-छोटी मुट्ठियाँ आकाश की ओर उठाकर बोले—
“हम कचरा सिर्फ़ गढ्ढों में डालेंगे,
हम अपने स्कूल की जगह को गंदा नहीं होने देंगे!”
नैया भीड़ के पीछे खड़ी थी।
उसकी आँखों में आँसू थे, पर होंठों पर गर्व की मुस्कान थी।
उसने मन ही मन भगवान से कहा—
“धन्य है मेरा बेटा, जिसने गंदगी में भी भविष्य की रोशनी देख ली।”
विनय भी उस दृश्य को देख रहा था।
उसके मन में विश्वास और गहराया कि यह काम अब निश्चित रूप से सफल होगा।
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उस रात जब तारे आसमान में टिमटिमाने लगे,
बस्ती के दिल में भी एक तारा जगमगा उठा था।
यह तारा था—संकल्प का तारा।
जो अब कभी बुझने वाला नहीं था।
सर्दी की हल्की धूप अब बस्ती के नए स्वरूप पर पड़ रही थी। जहाँ कुछ दिन पहले कीचड़, बदबू और कचरे के ढेर थे, वहाँ अब झाड़ू लगी ज़मीन, समतल मिट्टी और सलीके से बने कचरे के गढ्ढे दिखाई देते थे।
व्यापारी विनय अपने साथ आए इंजीनियरों और मज़दूरों के साथ उस ज़मीन पर पहुँचा। उसने गहरी साँस ली और मुस्कराते हुए कहा—
“अब काम शुरू किया जा सकता है।
इस ज़मीन पर शिक्षा का दीपक जल उठेगा।
जिसे नाम दिया जाएगा— ‘नवप्रभात विद्यालय’।”
यह सुनते ही बस्ती में खुशी की लहर दौड़ गई। लोग समझ गए कि उनके बच्चों का भविष्य अब अंधकार से उजाले की ओर जाने वाला है।
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अशोक का नेतृत्व
लेकिन इस सफलता की असली वजह कौन था?
वो था— अशोक।
जिस बस्ती के लोग लाख समझाने पर भी गंदगी फैलाना नहीं छोड़ते थे, उसी बस्ती को अशोक ने सिर्फ़ एक हफ़्ते में बदल दिया।
उसने बच्चों को टोली बनाकर गली-गली भेजा, घर-घर जाकर लोगों को समझाया, कभी प्रेम से, कभी तर्क से।
और जब ज़रूरत पड़ी, तो अपनी मेहनत और उदाहरण से सबके सामने रास्ता भी दिखाया।
लोगों ने महसूस किया—
“अगर ये छोटा लड़का इतना कर सकता है, तो हम क्यों नहीं?”
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चर्चा का विषय
अब हाल यह था कि सुबह होते ही बस्ती के लोग खुद ही गली साफ़ करते और कचरा गढ्ढे में डालते।
बच्चे खेलते-खेलते एक-दूसरे को टोकते—
“अरे! कचरा रास्ते पर मत डालो, गढ्ढे में डालो, ये तो अशोक भैया ने कहा है।”
यह बदलाव अब सिर्फ़ बस्ती तक सीमित नहीं रहा।
आसपास की कॉलोनियों और अख़बारों तक चर्चा पहुँच गई।
“जहाँ प्रशासन असफल हुआ, वहाँ एक किशोर ने चमत्कार कर दिखाया।”
शीर्षक के साथ स्थानीय अख़बारों ने अशोक की तस्वीर छापी।
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विनय की प्रतिक्रिया
व्यापारी विनय भी यह सब देखकर हैरान रह गया।
वह मन ही मन सोचने लगा—
“मैंने तो इसे एक छोटा काम दिया था, लेकिन इसने तो पूरी बस्ती की तस्वीर बदल दी।
ऐसे बच्चे अगर आगे आएँ, तो समाज का चेहरा बदल सकता है।”
उसने अशोक को बुलाकर सबके सामने कहा—
“बेटा, तुमने सिर्फ़ एक जगह की सफ़ाई नहीं की, बल्कि लोगों की सोच को भी साफ़ कर दिया।
यह विद्यालय तुम्हारे कारण ही संभव हुआ है।
अब तुम ही इस बस्ती के सच्चे नेता हो।”
अशोक संकोच से मुस्कुरा दिया, पर उसके भीतर गर्व और ज़िम्मेदारी दोनों गहराते चले गए।
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भविष्य की आहट
धीरे-धीरे स्कूल का निर्माण शुरू हुआ।
हर बार जब नींव में ईंट रखी जाती, लोग अशोक की तरफ़ देखते—
“अगर यह लड़का न होता, तो यह ईंट यहाँ कभी न रखी जाती।”
और अशोक सोचता—
“यह तो बस शुरुआत है।
मेरे लोगों को शिक्षा, सम्मान और नया जीवन दिलाना ही मेरा असली काम है।”
गंदगी से लदी वो बस्ती,
जहाँ उम्मीदें थीं मुरझाई,
अशोक की लगन से देखो,
धरती ने नई साँसें पाई।
हफ़्ते भर की मेहनत में ही,
बदल गई तस्वीर वहाँ,
जहाँ निराशा का डेरा था,
अब शिक्षा का दीप जला।
नेता नहीं, था एक बालक,
पर कर गया वो काम बड़ा,
लोगों की सोच बदल डाली,
जैसे अंधेरे में सूरज खड़ा।
अब हर दिल में नाम है उसका,
हर आँख में एक उजाला,
अशोक बना उम्मीद का दीपक,
लाया परिवर्तन का मतवाला।
बस्ती की वह भूमि, जहाँ कभी कचरे के ढेर और सड़ाँध के सिवा कुछ न दिखता था, अब एक भव्य विद्यालय के रूप में खड़ी थी। चारों ओर रंग-बिरंगे झंडे फहराए गए थे। दीवारों पर बच्चों द्वारा बनाई गई चित्रकारी चमक रही थी—कहीं किताबें, कहीं पेड़-पौधे, कहीं मुस्कुराते चेहरे। पूरा माहौल मानो शिक्षा का उत्सव बन गया हो।
सुबह की कोमल धूप, शरद ऋतु की हल्की ठंडी बयार और पक्षियों की मधुर चहचहाहट उस दिन को और पवित्र बना रही थी। बस्ती के लोग, जिनके चेहरों पर पहले बेबसी और थकान की लकीरें थीं, अब गर्व और उल्लास से दमक रहे थे। बच्चे नये कपड़े पहनकर कतार में खड़े थे, मानो उनका भविष्य आज से ही नये रंगों में रंग गया हो।
उद्घाटन के लिए स्थानीय सांसद महोदय और कलेक्टर स्वयं पधारे थे। मंच को फूलों और तोरणों से सजाया गया था। भीड़ उमड़ी हुई थी—गाँव, बस्ती और पास-पड़ोस के लोग सब इस ऐतिहासिक क्षण के गवाह बनने आए थे।
कार्यक्रम शुरू हुआ। सबसे पहले बच्चों ने स्वागत-गीत गाया—उनके स्वर में मासूमियत भी थी और उज्ज्वल भविष्य का आह्वान भी। इसके बाद व्यापारी विनय ने स्कूल की परिकल्पना और निर्माण की पूरी कहानी सुनाई और विशेष रूप से अशोक के नेतृत्व का उल्लेख किया।
जैसे ही विनय ने कहा—
“अगर अशोक और उसकी टोली न होती, तो यह विद्यालय केवल कागज़ों में ही सीमित रह जाता। अशोक ने वह कर दिखाया है, जिसे करने में कई बड़े-बड़े संगठन भी हिचकते।”
संपूर्ण सभा तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठी।
फिर कलेक्टर ने अपने शब्दों में अशोक की प्रशंसा करते हुए कहा—
“यह बालक केवल अपने परिवार का ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण समाज का भविष्य है। इसके नेतृत्व ने यह सिद्ध कर दिया है कि परिवर्तन किसी पद या धन से नहीं, बल्कि इच्छाशक्ति से आता है।”
आख़िर में सांसद महोदय ने माइक संभाला। उनकी आवाज़ में गंभीरता और आत्मीयता दोनों थी—
“अशोक! तुमने यह सिद्ध किया है कि सच्चा नेता वही है जो दूसरों की भलाई के लिए खड़ा हो। तुम्हारे प्रयास ने न केवल बस्ती को स्वच्छ बनाया, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए शिक्षा का द्वार खोला। ऐसे युवा ही हमारे देश की असली ताक़त हैं।”
सांसद ने फिर रुककर गहरी नज़र से अशोक को देखा और कहा—
“मैं तुम्हें अपनी पार्टी में युवा नेता के रूप में आमंत्रित करना चाहता हूँ। तुम्हारी निष्ठा और सेवा भाव देश और समाज को नई दिशा दे सकता है। यह केवल तुम्हारे लिए नहीं, बल्कि तुम्हारी बस्ती और तमाम युवाओं के लिए सम्मान की बात होगी।”
सभा एक बार फिर तालियों की गूँज से भर उठी।
अशोक की आँखों में हल्की नमी थी—उसने अपनी माँ नैया की ओर देखा। नैया की आँखें गर्व से चमक रही थीं। अशोक जानता था कि यह क्षण केवल उसका नहीं, उसकी पूरी बस्ती की जीत है।
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काव्यांत
कचरे से ढकी थी जो धरती,
आज वहाँ ज्ञान का दीप जला,
अशोक के छोटे से साहस ने,
इतिहास नया खुद रच डाला।
जिसे न सुना शासन ने कभी,
उसकी आवाज़ गगन तक पहुँची,
बालक से जननायक बनने की,
पहली डगर यहाँ से खुली।
तालियों से गूँजा जब मंच सारा,
सम्मान से भर आया गगन,
अशोक बना उम्मीद का ध्वजवाहक,
बस्ती का अब अभिमान अमर।
विद्यालय का उद्घाटन होते ही अशोक का नाम केवल बस्ती तक सीमित न रहा, आसपास के मोहल्लों और गाँवों तक गूँजने लगा। अब हर कोई उसे जानने लगा था—कभी “वो लड़का जिसने बस्ती साफ़ करवाई थी”, तो कभी “वो बेटा जिसने शिक्षा का दीप जलाया” कहकर।
समय के साथ उसके काम बढ़ते गए।
कभी वह टूटे हुए हैंडपंप ठीक करवाता, तो कभी बिजली विभाग से लड़कर बस्ती में रोशनी दिलवाता। बरसात के मौसम में जलजमाव से परेशान लोगों के लिए वह प्रशासन तक जाकर आवाज़ उठाता। लोगों ने देख लिया कि अशोक का नाम सुनते ही अधिकारी भी सजग हो जाते हैं, क्योंकि उसके पीछे जनता की ताक़त थी।
चुनाव की घोषणा
नगर निगम के चुनाव की घोषणा हुई तो जनता के बीच हलचल मच गई।
“इस बार अशोक को खड़ा करना ही होगा!”
लोग एक स्वर में यह मांग करने लगे।
अशोक ने पहले तो हाथ जोड़कर मना किया—
“मैं राजनीति के लिए नहीं, सेवा के लिए निकला हूँ।”
लेकिन उसकी माँ नैया ने उसे समझाया—
“बेटा, यह चुनाव राजनीति नहीं, सेवा का एक और अवसर है। जनता जब बुलाती है, तो ना करना उनके विश्वास का अपमान है।”
नैया की बातों ने अशोक को भीतर तक छू लिया। उसने ठान लिया कि अगर जनता चाहती है तो वह चुनाव लड़ेगा, लेकिन सिर्फ़ जनता की ताक़त के भरोसे।
प्रचार का अनोखा रंग
चुनाव प्रचार शुरू हुआ।
जहाँ बाकी उम्मीदवारों के पास कारों के काफ़िले, ऊँचे-ऊँचे पोस्टर और पैसों की बरसात थी, वहीं अशोक के पास जनता का प्यार था।
सुबह होते ही महिलाएँ अपने घरों से निकल पड़तीं। वे कहतीं—
“अशोक हमारा बेटा है, हम ही उसका प्रचार करेंगे।”
वे गलियों में घूम-घूमकर लोगों से वोट देने की अपील करतीं।
बच्चे ढोलक की थाप पर गीत गाते—
“साफ़ गली और उजियारा,
शिक्षा का दीपक प्यारा।
अशोक हमारा भाई है,
अबकी बार वही आएगा।”
युवक उसके साथ कंधे से कंधा मिलाकर घर-घर जाते। बुज़ुर्ग कहते—
“हमने कई नेताओं को देखा, पर पहली बार किसी को अपने लिए इतना ईमानदार काम करते देखा है।”
चुनावी सभाएँ भी अनोखी थीं।
जहाँ बाकी प्रत्याशी मंचों से भाषण देते, वहीं अशोक लोगों के बीच बैठकर उनकी समस्याएँ सुनता। वह कहता—
“नेता बनने नहीं आया हूँ, आपका सेवक बनने आया हूँ।”
उसकी सादगी और ईमानदारी ने दिल जीत लिया।
मतदान का दिन
मतदान के दिन बस्ती से लेकर शहर तक, लोगों में उत्साह का सैलाब था।
लंबी-लंबी कतारों में महिलाएँ, बुज़ुर्ग और युवक खड़े थे। हर किसी के होंठों पर बस एक ही नाम था—“अशोक।”
कई महिलाएँ तो छोटे बच्चों को गोद में लेकर आईं। वे कहतीं—
“ये वोट अशोक के लिए ही है, ताकि हमारे बच्चे भी पढ़-लिखकर आगे बढ़ें।”
परिणाम की घोषणा
जब नतीजे आए तो नज़ारा देखने लायक था।
अशोक ने ऐतिहासिक जीत हासिल की। उसके विरोधियों की जमानत तक ज़ब्त हो गई।
पूरे क्षेत्र में उत्सव-सा माहौल था।
बस्ती की गलियाँ दीपों से सज गईं, ढोल-नगाड़े गूँजने लगे। लोग गले मिलकर मिठाई बाँटने लगे। हर ओर एक ही नारा सुनाई दे रहा था—
“अशोक ज़िंदाबाद! जनता का सच्चा बेटा जिंदाबाद!”
मालिक की मुलाक़ात
उसी भीड़ में एक चेहरा चुपचाप खड़ा था—वही मालिक जिसने बरसों पहले बालू से कहा था,
“इसे स्कूल मत भेजो, मजदूरी ही इसका नसीब है।”
आज वही मालिक शर्मसार खड़ा था।
अशोक ने उसे देखा और भीड़ चीरते हुए उसके पास गया। मुस्कुराकर बोला—
“मालिक, किस्मत को कोई और लिखता है। हम तो बस मेहनत और सच्चाई से अपने रास्ते बनाते हैं।”
मालिक की आँखें भर आईं।
उसके भीतर वर्षों पुरानी सोच का बोझ टूट चुका था।
---
काव्यांत
लड़खड़ाती राहों से निकला,
एक दीपक बना उजियारा।
जिसे कहा गया मज़दूर कभी,
वही बना जन-जन का सहारा।
पैसों के बल पर जीत न पाई,
झूठी शानो-शौकत सारी।
जनता ने जिसको अपनाया,
वही निकला असली सवारी।
अब इतिहास कहेगा सदा,
मेहनत ही देती है पहचान।
अशोक बना जनता का नायक,
उसका उज्ज्वल हुआ सम्मान।
अशोक अब केवल बस्ती का बेटा नहीं रहा था, बल्कि जिले का नायक बन चुका था।
पार्षद बनने के बाद उसका दरवाज़ा कभी बंद नहीं होता। दिन हो या रात, कोई विधवा रोती हुई आती, तो कोई मज़दूर अपने हक़ की लड़ाई के लिए दरख़्वास्त लेकर आता। कोई बूढ़ा इलाज के लिए दवा मांगता तो कोई युवा नौकरी के लिए आशा लेकर।
हर कोई जानता था—
“अगर अपनी समस्या सचमुच सुलझानी है तो अशोक के पास जाना होगा।”
जनता का सेवक
अशोक की माँ नैया और पिता-तुल्य बालू, बेटे को देखकर गर्व से भर जाते।
नैया अक्सर कहतीं—
“जिस बेटे को मैंने संघर्ष की आग में तपते देखा, आज वही दूसरों के लिए छाँव बन गया है।”
बालू की आँखों में चमक थी। कभी जो मालिक उसे ताना देता था कि अशोक को मजदूर ही बना रहने दो, आज उसी बेटे ने मजदूरों का मसीहा बनकर उनके जीवन में इज्ज़त लौटा दी थी।
राजनीतिक दलों की खींचतान
अब हालात यह हो गए कि हर राजनीतिक पार्टी अपने प्रतिनिधि भेजकर कहती—
“अशोक जी, आप हमारे साथ आइए, हम आपको और बड़ा मंच देंगे।”
लेकिन अशोक मुस्कुराकर सिर्फ़ इतना कहता—
“मंच बड़ा हो या छोटा, मेरे लिए जनता ही सबसे बड़ा मंच है। मैं किसी पार्टी का गुलाम नहीं, जनता का सेवक हूँ।”
उसकी यह सादगी और बेबाक़ी ही उसे और ऊँचा उठाती गई।
लोकप्रियता का फैलाव
बस्ती से निकला यह युवा अब तहसील से होते हुए पूरे जिले में जाना जाने लगा।
उसकी सभाओं में हजारों लोग उमड़ने लगे।
लोग कहते—
“नेता तो बहुत देखे, लेकिन ऐसा जो अपना बेटा, अपना भाई लगे, वो सिर्फ़ अशोक है।”
हर गली-मोहल्ले में उसके कामों की कहानियाँ गूँजने लगीं।
किसी ने कहा—“उसने मेरी बहन की पढ़ाई पूरी करवाई।”
किसी ने कहा—“मेरे पिता का इलाज करवाया।”
किसी ने कहा—“बरसों से जो रास्ता टूटा था, वही बनवाया।”
विधायक का चुनाव
समय बदला और विधानसभा चुनाव का बिगुल बजा।
जिले भर की जनता ने आवाज़ उठाई—
“अब अशोक को विधायक बनाना है।”
चुनाव का मैदान सजा।
अन्य प्रत्याशियों के पास गाड़ियाँ, पैसा, बाहुबल और भीड़ खड़ी थी।
लेकिन अशोक के पास विश्वास, सादगी और जनता का अपार प्रेम था।
गाँव-गाँव और मोहल्लों में लोग स्वयं ही उसका प्रचार करने लगे। महिलाएँ गीत गातीं, बच्चे नारे लगाते, बुज़ुर्ग आशीर्वाद देते।
जब मतदान का दिन आया, तो दृश्य अद्भुत था।
लोग अपनी शादी तक टाल गए ताकि पहले वोट डाल सकें।
बुज़ुर्गों को बच्चे कंधों पर बैठाकर मतदान केंद्र तक ले गए।
हर ओर बस एक ही नाम गूँज रहा था—
“अशोक! अशोक! अशोक!”
ऐतिहासिक जीत
नतीजे जब आए, तो अशोक ने रिकॉर्ड मतों से जीत हासिल की।
विरोधियों की ज़मानतें ज़ब्त हो गईं।
पूरा ज़िला खुशी से झूम उठा।
बस्ती की गलियों में दीप जलाए गए।
ढोल-नगाड़ों की थाप पर नाचते हुए लोग कहते—
“हमारा बेटा विधायक बन गया! अब हमारी आवाज़ विधानसभा तक पहुँचेगी।”
एक नए युग की शुरुआत
मंच पर जब अशोक को विजयमाला पहनाई गई, तो उसकी आँखें अपनी माँ नैया और पिता-तुल्य बालू को ढूँढ रही थीं।
वह उनके पैरों पर झुक गया और बोला—
“आज जो भी हूँ, आप दोनों की वजह से हूँ। यह जीत मेरी नहीं, हर मज़दूर, हर माँ, हर बच्चे की है।”
भीड़ ने एक स्वर में जयकारा लगाया।
अशोक अब विधायक था, लेकिन उसके भीतर वही विनम्र, सेवाभावी, ईमानदार अशोक जीवित था।
बस्ती की गलियों से निकला,
अब विधानसभा तक पहुँचा।
जनता के विश्वास की शक्ति से,
इतिहास का पन्ना फिर से लिखा।
ना दौलत, ना शानो-शौकत,
बस सच्चाई का सहारा था।
जिसे मज़दूर का बेटा कहते थे,
वही अब जननायक हमारा था।
अशोक की जीत केवल उसके लिए नहीं थी।
यह जीत बस्ती की जीत थी, उन झुग्गियों की जीत थी जहाँ धूप से झुलसे चेहरे और भूख से सूखे पेट रोज़ सपनों की कब्र बनते थे। यह जीत उन माँओं की जीत थी, जो अपनी थाली से निवाला निकालकर बच्चों को खिलाती थीं। यह जीत उन बापों की जीत थी, जिनके हाथों की दरारें मज़दूरी की गवाही देती थीं।
आज जब अशोक विधायक बन चुका था, तो उसके चेहरे पर किसी सत्ता का अहंकार नहीं, बल्कि विनम्रता का तेज़ झलक रहा था। उसने जो पाया, वह पद की कुर्सी नहीं, बल्कि जनमानस का आशीर्वाद था। लोग उसे देखकर कहते—
“यह हमारा बेटा है… यह हमारी मिट्टी से निकला है… इसने हमें झुकने से उठना सिखाया है।”
वह मालिक, जिसने कभी बालू से कहा था कि अशोक को स्कूल मत भेजो, उसे मज़दूर बना दो… आज वही मालिक अख़बार में अशोक की तस्वीर देख रहा था। तस्वीर में अशोक सैकड़ों लोगों के बीच मंच पर खड़ा था, और उसके पीछे लिखा था—
“गरीब की आवाज़, जनता का नायक।”
मालिक के हाथ काँपे। उसकी आँखों में झलकता पछतावा साफ़ दिखाई देता था।
वह सोच रहा था—
“मैंने जिसे मिट्टी समझा, वह तो कमल निकला… और मैं जिसने उसे दबाने की कोशिश की, वह खुद कीचड़ में ही धँस गया।”
यह दृश्य समाज के उन तमाम लोगों के लिए आईना बन गया, जो गरीबों को तुच्छ समझते हैं।
अशोक अक्सर कहता था—
“गरीबी ने मुझे तोड़ा नहीं, बल्कि गढ़ा है।
जहाँ अमीरों के बच्चे खिलौनों से खेलते थे, मैं पत्थरों को फुटबॉल बना देता था।
जहाँ उनके पास किताबें थीं, मैं लोगों की बातें सुनकर सीखता था।
जहाँ वे आराम से पढ़ते थे, मैं मिट्टी ढोते-ढोते जीवन का पाठ पढ़ता था।
गरीबी ने ही मुझे सिखाया है कि असली ताक़त पेट की भूख को दबाकर भी सपनों को ज़िंदा रखना है।”
नैया की आँखें अब अक्सर भर आतीं। जब भी वह बेटे को जनता की समस्याएँ सुलझाते देखती, उसका दिल कह उठता—
“मैंने उस दिन सही कहा था कि गलत काम मत करना बेटा। आज तू वही कर रहा है, जो सबसे बड़ा सही काम है। तू दूसरों के लिए जी रहा है।”
एक दिन नैया ने धीमे स्वर में कहा—
“बेटा, आज तेरा नाम लोग बड़े गर्व से लेते हैं। लेकिन मुझे सबसे ज़्यादा खुशी इस बात की है कि तूने हमेशा हमें साथ रखा, कभी भूलाया नहीं।”
अशोक मुस्कुराया, माँ के पैरों में सिर रखकर बोला—
“माँ, अगर तूने उस दिन मुझे रोका होता, तो मैं शायद खो जाता। तू मेरी सबसे बड़ी ताक़त है।”
बालू अब बूढ़ा हो चला था। मगर उसका चेहरा चमक रहा था। लोग उसे अब ‘अशोक का पिता’ कहकर सम्मान देते थे।
एक दिन किसी ने मज़ाक में कहा—
“बालू! तूने तो कभी किताब नहीं पढ़ी, फिर तेरा बेटा इतना बड़ा कैसे बन गया?”
बालू हँस पड़ा। उसने अपने हाथों की झुर्रियों को दिखाते हुए कहा—
“मैंने किताबें नहीं पढ़ीं, लेकिन इन हाथों से पसीना बहाया है। मेरा पसीना ही मेरे बेटे की किताब बन गया। मेरी मेहनत ही उसके सपनों की स्याही बनी।”
लोगों की आँखें नम हो गईं। सचमुच, बालू जैसे पिता ही तो वे नींव होते हैं, जिन पर समाज का सबसे मजबूत स्तंभ खड़ा होता है।
अशोक का मानना था कि समाज को उठाने के लिए दो ही हथियार चाहिए—शिक्षा औऱ श्रम
उसने बस्ती के हर घर में यह संदेश फैलाया कि—
“पढ़ाई ही वह रास्ता है, जो तुम्हें अंधेरे से उजाले की ओर ले जाएगा। और श्रम वह दीपक है, जो तुम्हारे रास्ते को रोशन करेगा।”
धीरे-धीरे बस्ती बदलने लगी। जहाँ कभी गंदगी और आलस्य का अंबार था, वहाँ सफाई और श्रम की इज्ज़त होने लगी। लोग बच्चों को स्कूल भेजने लगे। और हर बार जब बच्चे किताबों में सिर झुकाते, तो नैया की आँखें गर्व से चमक उठतीं।
अशोक की यात्रा ने समाज को यह आईना दिखा दिया कि इंसान पैसों से अमीर नहीं बनता।
जिसके पास लाखों हैं लेकिन सोच संकुचित है, वह गरीब ही है।
और जिसके पास रोटी भी आधी है, मगर सोच आसमान जितनी बड़ी है—वह सचमुच अमीर है।
भविष्य की पीढ़ियों के लिए संदेश
अशोक अब केवल विधायक नहीं, बल्कि एक प्रतीक बन चुका था।
बच्चे उसे देखकर कहते—“हम भी बड़े होकर अशोक जैसे बनेंगे।”
माएँ कहतीं—“हम अपने बच्चों को स्कूल ज़रूर भेजेंगे।”
और बुज़ुर्ग आशीर्वाद देते—“ईश्वर करे, हर बस्ती को तेरा जैसा बेटा मिले।”
अंतिम भाव
अब बस्ती की तंग गलियों से निकलकर अशोक पूरे जिले का, और धीरे-धीरे प्रदेश का चेहरा बन गया था। लेकिन उसने कभी अपनी जड़ों को नहीं भुलाया।
वह हर भाषण में कहता—
“मैं कमल हूँ, लेकिन यह कीचड़ ही मेरी ताक़त है। अगर गरीबी, गंदगी और अभाव न होते, तो मैं कभी खिल नहीं पाता।”
काव्यांत
कीचड़ में पला, पर कमल बन गया,
संघर्ष की धूप से उज्ज्वल तन गया।
जिसे सबने समझा था बोझ यहाँ,
वह जनता का सहारा और धन बन गया।
पैसे से नहीं, सोच से अमीर था,
भीड़ में भी वह सबसे अधीर था।
ग़रीब का बेटा, मगर दिल का धनी,
वही अशोक अब सबका नसीब था।
अंतिम संदेश
गरीब और मज़दूर वर्ग मिट्टी नहीं हैं,
बल्कि उसी मिट्टी में खिलने वाले कमल हैं।
और यह कहानी हर उस मालिक को आईना दिखाती है जो यह सोचता है कि गरीब केवल बोझ हैं। नहीं—
गरीब ही इस धरती की सबसे बड़ी ताक़त हैं।
क्योंकि इंसान पैसों से नहीं, सोच से अमीर होता है।
सचिन तिवारी
इन्दौर, मध्यप्रदेश

