छोटे से सुंदर
नये गाँव मे
एक घर था
मेरा भी
पिता जी ने
बड़े परिश्रम से
बनाया था “घर”
वहाँ
दीवारों के बीच में
घर जैसा सब कुछ था
छोटे बच्चे खेलते थे
दीवारों के भीतर
पिता के स्नेह से
सिंचित होते रहते थे
तब उस जमाने में
वक़्त को ज्यादा समझ नहीं होती थी
अब कुछ भी नहीं बचा
पिता जी भी नहीं
दोष किसी का भी नहीं
बस
वक़्त समझदार हो गया
और
हम “हम” नहीं रहे।
-अनिल कुमार मिश्र,
राँची,झारखंड
राँची,झारखंड