कहावत चली आ रही है - "मुफ्त का चन्दन, घिस मेरे नन्दन" | सच कहूँ तो मुझे आज तक इसका सटीक अर्थ नहीं पता चला | लेकिन जब कुछ मुफ्त बँटता हुआ देखता हूँ तो बड़ा विचित्र सा लगता है | कई प्रश्न उठने लगते हैं मस्तिष्क के पटल पर | जैसे -
ये चीज़ मुफ्त बंट ही क्यों रही है ?
क्या इस चीज़ को मुफ्त बाँटना क्या अपरिहार्य था ?
मुफ्त की कतार में खड़े लोग क्या वास्तव में इसके पात्र हैं ?
अगर इन्हें पात्र माना ही गया है तो इनकी पात्रता किसने निर्धारित की ?
क्या सभी ज़रूरतमंद कतार में उपस्थित हैं ?
कोई ऐसा ज़रूरतमंद तो नहीं जिसे वास्तव में ज़रूरत है और वो कतार में लगा ही नहीं ? कयोंकि वो मुफ्त की कतार में खड़ा होना ही नहीं चाहता |
कहीं इस मुफ्त की कतार में वे सज्जन तो नहीं जो केवल मुफ्त के पिपासु हैं और दैनिक जीवन में बिलकुल फली नही फोड़ना चाहते ?
उन लोगों को इस मुफ्त वितरण से क्यों वंचित किया जा रहा है जो दिन-रात परिश्रम करते हैं और मुफ्त का माल लेने में संकोच करते हैं ?
और कुछ अहम सवाल -
जिन लोगों को लगातार मुफ्त का माल दिया जा रहा है, क्या उनका कुछ भला हुआ ?
क्या इस मुफ्त के माल को लेकर उन्होंने अपने आप को अब आत्म निर्भर बना लिया ?
क्या अब आगे से वे इस कतार से हटने के लिए तैयार हो गये ?
कहीं ऐसा तो नहीं कि जो कतार में खड़े हैं वो केवल दिखाए जा रहें हैं और चन्दन का लाभ कोई और ही ले रहा है ?
और अन्त में -
क्या कभी इस मुफ्त की कतार का कभी अन्त होगा ?
अन्त नही तो क्या ये कतार कभी छोटी होगी ?
मुझे नही लगता कि ऐसी कतार किसी समाज को सही दिशा में ले जातीं होगी |
-जय कुमार